Saturday, September 10, 2011

‘तपस्विनी’ काव्य सप्तम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Kavya Canto-7)

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Canto-7]
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[Canto-7 has been taken from pages 121-146 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : 'Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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सप्तम सर्ग
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‘अरी सखी !’, बोलीं वैदेही,
‘मेरे दुःखों का कारण मेरा दुर्विपाक ही ।
मेरे कर्मों के लिये विधि का
दोष नहीं किसी प्रकार का ।
स्वभाव से मेरे स्वामी महीयान्
अपार कृपा-निधान ॥

प्रियतम से बिछड़ रह सकता जीवन अपना,
मन में एक पल भी न थी ऐसी कल्पना ।
घोर दुर्विषह दुःख मैंने झेले कितने
केवल स्वामी के पावन मुख दर्शन करने ॥

समाकर मेरे श्रवण-विवर
आशा उसी समय
सान्त्वना-मन्त्र बनकर
हर लेती मेरी मुमूर्षा को निश्चय ।
अभी मृत्यु हो चुकी
उसी आशा की ।
स्मृति में उसे लाकर मेरे प्राण
हो रहे दग्ध म्रियमाण ॥’

बोली सहचरी :
‘सखी जानकी !
आशा कैसी थी, क्यों मरी,
मैं समझ न सकी ।
तुम-जैसी साधवी सुमती
झेल दारुण दुःखाघात
न विधि की निन्दा करती,
यही तो विचित्र बात ॥’

सती बोलीं : “ सहचरी !
सुनकर मेरी कहानी दुःखभरी
हो जायेगी ज्ञात
तुम्हें सारी बात ।
मैंने किया जैसे
घोर दुःखों का आमन्त्रण,
फिर आया जैसे
मेरी आशा का मरण ॥

पञ्चवटी में कुटीर के निकट एकदिन
विचरने लगा सानन्द एक स्वर्णिम हरिन ।
चित्रित अंग उसका चिक्‌कण सुन्दर
चमकने लगा भानु-रश्मि का संग पाकर ॥

थी उसके स्वर्णिम अपघन में
जो चित्र-बिन्दुओं की कान्ति मनोरम,
उसने मेरे नयन में
जगाया रत्नों का भ्रम ॥

पहले कभी उस-जैसा मृगवर
हुआ नहीं था मेरा लोचन-गोचर
अपने राजभवन में,
नगर में या कानन में ॥

सोचा मैंने,
‘जब नगर लौट चलूंगी,
तब साथ अपने
उस मनोहर हरिण को ले लूंगी ।
विस्मित करा दूंगी
नगरवासियों का मन,
संग-संग करूंगी
कानन-सौन्दर्य-राशि वर्णन ॥’

मैंने उसे पकड़ने आहार दिखलाया,
परन्तु वह चौंककर समीप न आया ।
लुभाकर मेरा मन,
रमाकर मेरे नयन
बारबार जाकर
घुस गया कानन के भीतर ॥

उसीके कारण
जब मेरा अन्तःकरण
व्यग्र हो उठा अत्यन्त,
मेरे प्राणेश्वर
सस्नेह बोले तुरन्त :
‘पूरी करूंगा, अरी प्यारी !
उत्सुकता तुम्हारी
उस रमणीय हरिण को लाकर सत्वर ॥’

मृग के पीछे-पीछे रघुवीर
चले तुरन्त ले हाथ में धनुष तीर ।
उसे अनुसरण कर अति शीघ्र चल
मेरी दृष्टि-सीमा से हो गये ओझल ॥

हुई कानन के भीतर
‘रक्षा करो लक्ष्मण’ ध्वनि श्रुतिगोचर ।
उस पुकार से हो गया विकल
मानस मेरा उसी क्षण ।
उधर मन संग दिया श्रवण-युगल ।
‘रक्षा करो लक्ष्मण’
वही पुकार
गूँज उठी पुनर्बार ॥

समीप मेरे थे देवर
लक्ष्मण वीरवर ।
कहा अधीर-मन मैंने :
‘देखो वत्स ! संकट आया ।’
मेरे मन में आश्वासना देने
उन्होंने समझाया :
‘भय न करना, देवी !
वह भाषा नहीं राघवी ॥’

अरी सखी ! वीर का स्वभाव सही
समझते वीर पुरुष ही ।
देखा मैंने उसी क्षण
धीर गम्भीर खड़े हैं लक्ष्मण ॥

नारी का हृदय
दुर्बल है स्वाभाविक ।
उनके वचन से मैं उसी समय
होने लगी विकल अधिक ॥

बिनती के अनन्तर
कटु वचन कहकर
उन्हें प्रेषित किया मैंने
शीघ्र स्वामी के समीप चलने ।
मेरी सुख-सौभाग्य-सम्पदा सभी
बह गयी उनके प्रस्थान की धारा में तभी ॥

विपत्ति वहाँ शरीराकार
योगीन्द्र-वेश भिक्षुक बनी मेरे द्वार ।
स्वामी के प्रत्यावर्त्तन तक उधर
न करके प्रतीक्षा,
अड़ा रहा वह अधम पामर
पाने अपनी भिक्षा ॥

भिक्षादान के समय बलपूर्वक उसने
मेरा हाथ पकड़ सत्वर
बिठाया मुझे विमान में लेकर ।
मैंने विनय किये कितने,
तर्जनाएँ दीं कितनी,
परन्तु दुष्ट ने कुछ न सुनी ॥

जाना मैंने उसी क्षण,
वेश नहीं गुण का लक्षण ।
साधुवेश बाह्य आकार,
परन्तु आभ्यन्तर अन्यप्रकार ।
लोग मानते धर्म सर्व-मंगलकारी,
कौन जाने, यम है धर्म-नामधारी ॥

दक्षिण दिशा की ओर
दुष्ट ने चलाया विमान,
घनघोष से हो उठा जोर
व्योम-मार्ग कम्पमान ।
मैंने जितने भी उच्च स्वर
किये क्रन्दन दीन,
घोर घर्घर रथ-नाद के अन्दर
सब हो गये विलीन ॥

देखा मैंने निम्न की ओर,
मुझे निहार रो रहे थे वन में कई मोर ।
दल-दल मृग उधर
मस्तक उठाकर
रहे थे रथ निहार
त्रस्त नयनों में बारबार ॥

मार्ग रोक युद्ध किया एक पंछी ने,
परन्तु दुष्ट ने उसके पंख छीने ।
लेकर प्रतिकूल प्रवाह
रोक न सका समीर दुष्ट की राह ॥

मार्ग के ऊँचे पर्वत
शीश उठाकर समस्त
वहाँ रोक न सके
उस विमान को विहायस के ।
मर्त्त्यवासियों को देने के लिये वार्त्ता
नीचे देख रही मैं दीन-नयना आर्त्ता ॥

रथ-घोष में मेरी पुकार सकल
हो जायगी निष्फल,
मानस में मैंने यही विचार
नीचे गिरा दिये सब अलंकार ।
देखा मैंने, व्याकुल सरिताएँ उस पल
शीर्ण-काया में जैसे हो गयीं निश्चल ॥

संकुचित-कलेवर
ऊँचे-ऊँचे वृक्ष सारे
सिमट गये परस्पर
उस पामर के भय के मारे ।
धरती धीरे-धीरे हो गयी चुप,
हरिण विहंगम सभी गये छुप ॥

दृश्य हुईं धीरे घनी नीलिमाभरी तब
तीन दिशाएँ पश्चिम, दक्षिण और पूरब ।
धरा-लक्षण कुछ भी न हुआ दृश्यमान,
उसके भीतर दुष्ट ने चलाया विमान ॥

आगे दृश्य हुई दिशा की छोर उजली,
मैंने धीरे-धीरे उसे वनाग्नि-शिखा समझ ली ।
रथ चला जितना समीपतर
अनगिन आलोक-पुञ्ज जगमगाये उधर ॥

सोचा मैंने : ‘ताराएँ छोड़कर व्योमस्थल
झुण्ड बना दिवस में चमक रहीं समुज्ज्वल ।
चन्द्रमा के विरह से गगन-मण्डल त्याग
जला रहीं हृदय में विरह की आग ।
या मर्त्त्यलीला समाप्त हो गयी मेरी,
प्रवेश कर रही हूँ यमराज की नगरी ॥’

देखा मैंने, मनोरम सौधावली
काञ्चन-कलसों से सुशोभित उजली ।
धीरे-धीरे उस नगरी में विशाल मनोहर
भवन-वीथियाँ हुईं दृष्टिगोचर ।
दिनकर ने उसी नगरी को है सजाया,
अपने करों से भवनों के मस्तक पर
कलसों को रञ्जित कर
है दीप्तिमान् बनाया ॥

विचार आया मेरे मन में उसी समय,
वह योगी यमदूत है निश्चय ।
मैं सदर्प दृढ़-मन
प्रवेश करूंगी यम-दरवार,
उठाकर अपनी तेजधार-सम्पन्न
दीप्तिभरी पतिभक्ति-तलवार ॥

नगर-प्रान्त में योगी रथ से उतर
एक उद्यान का मार्ग निहार हुआ अग्रसर ।
मनोरम संगमर्मरों से बनी
वही राह थी सुहावनी ।
विविध पुष्प-फलों से उद्यान
था अत्यन्त शोभायमान ॥

वहाँ अधिकतर अशोक पादपकुल
पुष्प-पुञ्जों से दीखते सुमञ्जुल ।
उद्यान-मध्य में एक समुज्ज्वल भवन
नाना रत्नों से था नेत्र-रञ्जन ॥

योगी मुझे बोला : ‘ वहाँ करो अवस्थान,
मन में प्रियतम के बिना
विरह मत करो गिना ।
हो गया अवसान
तुम्हारे वनवास-दुःखों का ।
सारे स्वर्ग-सुखों का
भोग करो ऐश्वर्य
इस देश में भर अपूर्व सौन्दर्य ॥

त्रिलोक में जो द्रव्य-लाभ दुष्कर,
अब तुम्हारे चाहने पर
सब कुछ अनायास
सुलभ हो जायेंगे पास ।
सहस्र सुन्दरियाँ प्यार दरशाकर
दासी बनेंगी तुम्हारे कमल-पैरों में आकर ॥’

बुलाकर सहस्र रमणियाँ रत्नभूषा-मनोरमा,
उन्हें दृढ़ समझाकर बोला योगी,
‘इसे जानकर मेरी हृदयेश्वरी प्रियतमा
तुम सब सभक्तिक सेवा करती रहोगी ॥

पास नित्य सेवा करोगी
उसके मानस अनुसार सर्वथा
और सुनाती रहोगी
मेरे प्रतापों की गाथा ।
मेरे विपुल वैभव में जैसे
रम जाये उसका अन्तःकरण,
यत्न करती रहोगी वैसे
तुम सब प्रतिक्षण ॥’

अदृश्य हो गया योगी कहकर इतना,
विस्मय से भरा मेरा हृदय अपना ।
वह योगी कौन भला ?
मुझे कहाँ ले आया ?
उसका नगर क्या ?
मुझे कुछ पता न चला ॥

बन गयी मैं कैसी
योगी की हृदयेश्वरी प्रेयसी ?
तनु धारण कर राघव-पत्नी की
अभी जीवित हूँ जानकी ॥

मेरा तो हुआ नहीं निधन,
अब मुझे है स्मरण,
श्रीरामचन्द्र कौशल्या-नन्दन
मेरी एकमात्र शरण ॥

हृदय में फिर दृढ़ निश्चय किया,
जो कोई हो योगी, इससे भय क्या ?
जीवन में जब तक रहे स्मरण,
कौशल्या-नन्दन ही मेरी शरण ॥

चाहे हो यह यम-नगर या स्वर्गस्थल,
विहरते होंगे यहाँ देव सकल,
कौन हर सकेगा मेरा मन ?
मेरी शरण केवल कौशल्या-नन्दन ॥

सहस्र सेविकाओं का मुझे प्रयोजन क्या ?
और मेरा अवगाहन या भोजन क्या ?
करते होंगे भ्रमण
कानन में मेरे प्राणेश्वर,
निविष्ट रहेगा मेरा अन्तःकरण
उनके श्रीचरणों में ही निरन्तर ॥

सुन्दर वीणाहस्ता शत सरस्वतियाँ आयें
और मेरे समीप संगीत सुनायें,
मेरी श्रुति में कहाँ हो पाएगा उसका मूल्य
प्रिय-मुख से निःसृत एक पद तुल्य ?

इसप्रकार करके अनेक भावना
प्रिय-चरणों में लगाकर ध्यान
खो दिया मैंने जीवन का ज्ञान ।
किस प्रकार कितना काल बीता,
अन्य कुछ न जाना
बिना पति-चिन्ता ॥

परन्तु उस राज्य में दिन और रात
मुझे देव-समय सम हुए प्रतिभात ।
माना मैंने उसे देवभुवन,
देव-साहस से भर लिया जीवन ॥

ईश्वर से प्रार्थना मैंने की
देव-शक्ति पाने की,
देवी-हृदय की समुचित
पति-भक्ति सहित ।
आशा रही पाने पति-चरण-सुधा,
बिसर गई मैं सारी पिपासा, सारी क्षुधा ॥

दासियाँ लाकर नाना अंगराग सिंगार
विविध अलंकार,
विविध आहार,
चाटुवाणी बोलीं अनेक प्रकार ।
परन्तु मेरा अन्तःकरण वहीं
कभी आकर्षित हुआ नहीं ॥

दासियों के कथालाप से
धीरे-धीरे मैं जान गयी,
अपने अमित प्रताप से
रावण वह त्रिलोक-जयी ।
सुनकर उसका नाम
देवराज इन्द्र को भी लगती शंका ।
है उसका धाम
पारावार-परिखायुत लंका ॥

उस राज्य को मैं सीता
हो चुकी हूँ आनीता ।
छद्म योगीवेश करके धारण
हर लाया है दुष्ट रावण ॥

उसके भवन नगर
सब अनुपम सुन्दर,
नर-किन्नरों का प्रवेश उधर
अत्यन्त दुष्कर ॥

जहाँ उसका मन लगता,
कार्य सिद्ध करते भय से सभी देवता ।
उसके नयनों में रक्तिमा आने पर
ब्रह्मा के चित्त में जागता विपत्ति का डर ॥

श्रवण करके नाम रावण राक्षस का,
मैं जान गयी उसे,
चूर्ण हुआ था गर्व जिसका
माहेश्वर-धनु से ।
सोचा मैंने, कितना साहस किया है श्वान ने
यज्ञ-पीयूष पान करने ॥

सचमुच एकदिन अग्नितेज लेकर
खड़ा हो गया मेरे समीप वह पामर ।
पापभरे वचन में,
पापभरे मन में,
सुनाकर आत्मगौरव अपना
पापी बकता रहा कितना ॥

देख मेरी दुःख-घनघटा की अश्रुधार
हट गया वह ले अहंकार-अन्धकार ।
मेरी उस घटा के भीतर अचानक
भयंकरी आशा-विद्युत की
छटा गयी चमक
उस दुष्ट धूर्त्त की ॥

सखी ! जिस दिन से मुझे ज्ञात हुआ,
पापी दानव ने है मेरा हाथ छुआ,
तब स्पर्श-स्थान से उठकर
फैल सारे कलेवर
असहनीय जलन
अस्थिर कर रही मेरा जीवन ॥

शरीर के सारे रोम हुए मुझे भान
विष-लिप्त वाणों के समान ।
व्याध-तीरों से आहता
मृगियाँ कोमलांगी
कैसा दुःख सहती होंगी,
मेरा मन सोचता ॥

दुःसह दुःख हृदय में झेलकर
चित्त दृढ़ लगाया मैंने धर्म पर ।
भरोसा रहा मेरा अटल,
सर्वदा धर्म ही अबला का बल ॥

अज्ञानवश मैंने भिक्षा दी थी एकबार
अधम राक्षस को हस्त पसार ।
यदि वह पापी इस पल
प्रदर्शन करेगा अपना बल,
मार डालूंगी उसे
या मरूंगी उसके बाहु से ॥

यदि दुनिया में सत्य है धर्म
देखेगी दुनिया मेरा अद्भुत कर्म ।
पाप-कार्पास हो भी पर्वत समान,
उसे भस्म करता पुण्य-वह्निकण शक्तिमान् ॥

देखो सजनी ! धर्म ने सत्य बन
मेरे प्राणों में किया अमृत-सा सिञ्चन ।
आकर कोई कपिवर
दे गया मुझे स्वामी की खबर,
रचा उसके बाद
रावण के विरुद्ध विवाद ॥

रघुवर ने वानर-बल संग ले तुरन्त
सिन्धु-नीर में सेतुबन्ध निर्माण करके,
लांघ दुस्तर विस्तारित जल
किया लंकापुरी पर प्रबल
आक्रमण दुरन्त,
शंका भर दी प्राणों में दानवेश्वर के ॥

आरंभ किया दुष्कर
याग संग्राम का,
वानरों का गर्जन सुनकर
शंकित हो उठी लंका ।
राक्षस-कुल में बली थे जितने,
आकर सब उस याग में बलि बने ॥

धर्म-मार्ग पर केवल एक था
राघव-चरणों की शरण में सर्वथा ।
अभय सुमन-माल्य कण्ठ पर धारण कर
अटल यूप बना महायज्ञ में उधर ॥

बह गये थे मेरे जितने लोतक,
उनके कोटि-गुणों तक
वहाँ बह गये फिर
राक्षसगण के रुधिर ।
लंकानगरी का अधीश्वर
पाकर अतिशय शंका,
शोक-समुद्र में बहकर
ग्रास बना प्रभु के शर-ग्राह का ॥

बोले मुझे बुलाकर तदुपरान्त
निहार स्नेह-हीन नयनों से मेरे प्रियकान्त,
‘कुसंग से बढ़कर नहीं होता
संसार में कोई पातक ।
कुसंगी के संग से मिलता
सन्ताप अत्यन्त हानिकारक ॥

तुम थीं मदनान्ध दानव के पाप-भवन में;
तुम्हारे चित्त में जागी होगी पाप-वासना,
यही है संभावना ।
इसलिये तुम्हें पुनर्बार
मैं कर नहीं सकता स्वीकार,
स्वीकारने से होगी लोक-निन्दा हमें ॥

जब जलद का जल निम्न-गति करता,
बादल उसे क्या फिर रख सकता ?
अग्निशिखा समान अग्नि में दग्ध हो वही जल
बादल से मिल पाता फिर ऊपर को चल ॥’

सोचा मैंने : ‘किया था अपना जीवन धारण
केवल सेवा करने प्रभु के कमल-चरण ।
चरण-स्पर्श करने मैं यदि नहीं योग्या
मुझे जीवन की और आवश्यकता क्या ?

निहार-निहार प्रभु का वदन
जला दूंगी अपना कलेवर,
मेरा सुख-अर्जन
क्या हो सकता इससे बढ़कर ?
तनु भस्म होने पर मेरे प्राण निश्चय
प्रभु के श्रीअंग में प्राप्त करेंगे आश्रय ।
धर्म-बल से यदि बचेगा शरीर किसी प्रकार
प्राप्त करूंगी प्रभु का द्विगुण प्यार ॥’

बोली मैं तदनन्तर,
‘प्रज्वलित किया जाये वैश्वानर ।
उस में अवगाहन करने
यह दासी प्रस्तुत है सामने ॥’

अकुण्ठ-आज्ञाकारी लक्ष्मण ने सकुण्ठ-मन
कर दिया सत्वर अनल-प्रज्वलन ।
धधक उठीं अग्नि-शिखाएँ वायु-वेग से प्रलम्ब,
व्यग्र हुईं उछलने अम्बर में अविलम्ब ॥

डालकर नयन प्यासे
प्रभु के मुखारविन्द पर,
अग्नि-समीप चल हृदय-बल से
मैं कहने लगी उधर :
‘हे सूर्य ! चन्द्र ! अनिल ! अनल ! विहायस !
तुम सब जानते हो प्राणियों का मानस ।
राघव के बिना अन्य व्यक्ति में यदि किंचित्
हुआ होगा मन मेरा प्रणय से आकर्षित,
तुम तो सर्वभक्षण-दक्ष हो अनल !
मुझे भस्म कर दो इसी पल ॥

रावण की नगरी के अन्दर
रही थी मैं बन्दिनी बनकर ।
मुझे यदि उलझाया होगा उसने
पाप आचरण करने,
तब प्रभु के चरण-पंकज पावन,
कोटि जन्मों तक
नहीं कर पाऊंगी दर्शन,
मुझे भस्म कर दो, हे पावक ! ॥

कौन पापी, कौन पुण्यवान्,
तुम्हें नहीं पहचान ।
अपने धर्म के कारण
करते हो सबके प्राण हरण ।
यदि धर्म विश्व में शाश्वत सत्य विदित,
मेरा धर्म मुझे अपवाद से बचाएगा निश्चित ॥

हे धर्म ! मेरे तन में
अपने गुणों के साथ निवास करो ।
मेरे संग ज्वलन में
समा जाओ, मत डरो ।
जीवन में न कर सकोगे
तो मेरी मृत्यु के बाद,
मुझे दासी बना दोगे
सेवा करने प्रभु के पाद ॥

राख तो होगा मेरा तन जलने के बाद,
उसे करवादोगे किसी तरु की खाद ।
बर्धकी के हाथों काष्ठ देकर उस तरु का
मुझे बनवादोगे प्रभु की युगल पादुका ॥’

उधर बारबार
प्रभु का श्रीमुख निहार
अनल में जाकर
समा गयी मैं निडर ।
देख यही गति
रोए रघुपति ।
रोए लक्ष्मण भी,
करुण स्वन में सैनिक सभी ॥

अनगिन नयनों में अश्रुजल
उछल गया प्रबल ।
मैं कारुण्य-नीर में हो गयी मगन ।
वहाँ मुझे अनल
अनुभूत हुआ सुशीतल,
हाहाकार से व्याप्त हुआ सारा गगन ॥

हुआ मेरा अनुकूल आकाश-वचन,
जान सके प्रभु मेरा सतीपन ।
धर्मवश बुझ गया वैश्वानर,
धर्म-बल से बचे मेरे प्राण उधर ॥

मेरे दुःख समस्त हो गये भस्मसात्,
प्रभु-पद की दासी बनी मैं सौभाग्य-वशात् ।
सोचा मैंने : ‘कष्ट से कितने
था जीवन बचाया,
इसी कारण ही अपने
प्रभु का चरण-कमल पाया ॥’

दिव्य रथ में मुझे बिठाकर
साथ ले असंख्य राक्षस वानर
अयोध्या-नगरी की ओर
विजयोल्लास-सुख में विभोर,
लौट चले प्रभु रघुवर
विहायस-मार्ग पर ॥

मैंने विरह-मरुप्रदेश करके पार
शुष्क प्राणों में पाया प्यार का पारावार ।
प्राणों में हुआ अपूर्व सुख का सञ्चार,
मैंने आनन्दमय माना संसार ॥

अपने जीवन में यदि छा गया है दुःख,
सारे विश्व में दिखाई पड़ता नहीं सुख ।
जब होता अपने जीवन में सुखोदय,
सारा संसार दीखता सुखमय ॥

जिस रथ पर गिर
पड़ी थी मैं विपत्ति-कूप में,
उसी रथ पर फिर
चढ़ गई सम्पत्ति-स्तूप में ।
जिसे देख-देख थी मैं रोदन-विकला,
उसे देख-देख आनन्द बढ़ता चला ॥

विचित्र गति से चल
रहा था रथ रत्न-समुज्ज्वल ।
नीचे अथाह सागर,
ऊपर बलाहक,
समस्त सरिता पादप भूधर
हुए मेरे नयनों के अपार हर्षदायक ॥

पूर्व निवास सभी वनस्थल,
विहार-निकुञ्ज-पुञ्ज, मनोरम सानुमान्,
धूम-जटिल ऋषि-आश्रम सकल
मेरे अन्तःकरण को कर रहे थे आह्वान ॥

व्यस्त-केशा मुनिकुमारियाँ
रथ का घर्घर स्वर
दूर से सुन चकित-अन्तर,
वदन उठाकर रही थीं निहार
मेरे मन में करके वहाँ
विगत सुखों की स्मृति सञ्चार ॥

उनके प्यार पावन,
सानन्द आदर अपार,
कोमल मधुर वचनों से सुन्दर अधर,
ममताभरी शान्त भोली चितवन,
सब बरसाने लगे अमृत की धार
मेरी स्मृति की भूमि पर ॥

क्रमानुसार कुमारियों के सारे नाम
निर्मल बने अरविन्द रूप अभिराम
वहाँ विकसित होकर,
घोर विरह-निशान्धकार के अनन्तर
सुख-प्रभात के आगमन पर
मेरे मानस-सरोवर के भीतर ॥

उनके सारे पिछले भाव-सौरभ ने मन्द-मन्द
मेरे प्राणों में भर दिया अनन्त आनन्द ।
करके कानन दर्शन
तृप्त नहीं हुआ था मेरा मन,
हुआ स्यन्दन उधर
तीव्र वेग से अग्रसर ॥

नैसर्गिक शोभा-भवन मनोरम बन का
परिहार मन मेरा कर न सका ।
फिर मगन था गगन में, स्यन्दन में
वह मन अपना,
लगा उधर अयोध्या-भुवन में
करने श्वश्रू-पद वन्दना ॥

श्याम-सुन्दर कान्तिमान् कान्त को साथ लेकर
त्रिस्थल के सुहाने रंगों में विहर
हुआ मेरा मन अर्धमण्डलाकार शोभायमान
अभिनव जलद में इन्द्रधनुष के समान ॥

प्राण-प्रतिम पुत्र के वन-प्रस्थान अनन्तर
मेरे श्वशुर अयोध्या-अधीश्वर
बुझाकर अपना जीवन-दीपक दुःखित-मन
चले गये इन्द्र के पास स्वर्गभुवन ॥

देखकर राज्य अराजक
कानन पहुँचे भरत देवर
स्वामी के पास सत्वर,
बोले कृताञ्जलि-पूर्वक
दुःखित-मन सविनय ।
चित्रकूट में थे हम उसी समय ॥

बहुत बिनती कर वीर भरत ने
स्वामी से कहा महीपति बनने ।
पितृभक्ति और भी करके दृढ़तर
सम्मत न हुए राघव उन बातों पर ॥

बोले : ‘ पिताजी ने अपना शरीर त्याग दिया,
परन्तु सत्य भंग नहीं किया ।
पितृ-पालित उस धर्म-विहंग का गला
कैसे घोंट दूंगा अविवेक होकर भला ?’

स्वामी-चरणों में गिर
भरत ने रो रोकर कहा फिर,
‘भ्रात ! अपने पास
मुझे बना लीजिये चरणों का दास ।
अस्ताचल चलते तपन
जब छोड़कर धरती,
उन्हें उनकी किरन
क्या त्याग सकती ?’

प्रभु बोले : ‘रजनी में वितर प्रकाश प्यारा
मिटाते चन्द्रमा धरती का दुःख सारा ।’
भरत ने उत्तर दिया करके बिनती :
‘प्रभो ! सूर्य की प्रभा चन्द्रमा को मिलती ।
आपकी रत्न-पादुका लेकर व्रती
सम्हाल सकेगा मेरा शीश,
धारण करते धरती
जैसे शेष फणीश ।
मेरे सिर पर जब पादुकामणि भाती रहेगी,
बैरी-दुनिया मुझे भुजंग समझेगी ॥’

किया पादुका-युगल अर्पण
प्रभु ने भरत के हाथों उसी क्षण,
मस्तक पर उसे स्थापन किया भरत ने ।
अश्रुल-नयन लौट वे वीरवर
तत्पर हो गये तदनन्तर
राजलक्ष्मी का दुःख हरने ॥

चौदह वर्षों का जब हुआ अवसान
वे निहार रहे थे पन्थ ।
पहुँच गया विमान,
वहीं से अवतरण कर तुरन्त
मैंने सादर ग्रहण कर ली
श्वश्रुओं की चरण-धूली ॥

पाकर सानुज सपत्नीक प्रभु के दर्शन
भरत ने आनन्द-नद में डुबाया मन ।
चरणों में प्रत्यर्पित की युगल पादुका,
छत्र-चामर से पूजन किया प्रभु का ॥

मेरे स्वामी राजा बने,
मैं बनी राज्ञी उनकी ।
प्रभु-मानस-अनुकूल मैंने
श्रीचरणों में सेवा की ।
अभिलाषा जो मेरे मानस में आती,
शीघ्र वह सम्पादित हो जाती ॥

राजदम्पति हम प्रीति-नौका में बैठकर
सुख-सिन्धु में लगे रमने ।
सम्पदा-ऊर्मियों में कई संवत्सर
सकौतुक डुबा दिये हमने ॥

जाना था किसने,
मेरे ललाट पर
लिखे हैं दैव ने
अनगिन दुःखों के अक्षर ?
विपत्ति-रूप बड़वानल उपज भयानक
समस्त ध्वस्त कर देगा अचानक ?

दिवस-कान्ति-शेष से प्रतीयमान
रंगीन गगन के समान
भाग्यावसान के समय
हुआ मेरा गर्भोदय ।
दोहद-पूर्त्ति के लिये प्राणेश्वर
तत्पर हो गये अत्यन्त स्नेहभर ॥

‘करना चाहती मैं वन-विहार
वन-बान्धवी के संग, प्राणनाथ !’
एक दिन प्रियतम के पास इस प्रकार
अभिलाषा अपनी
व्यक्त की मैंने ।
उसी रात सजनी !
प्रभात के पूर्व ही स्वामी ने
भेज दिया मुझे लक्ष्मण के साथ ॥

लक्ष्मण ने गंगा-तट पर
मुझे पहुँचाया
और नौका से अवतरण कर
धीरे से जो बताया ...”
कहकर इस प्रकार
कण्ठ सती का रुद्ध हो गया ।
आगे दारुण दुःख निहार
रोने लगीं वैदेह-तनया ॥

अविरल अश्रुधार में बहती हुई इन्हें
शीघ्र थाम लिया मुनिकुमारी ने,
और मिलाकर वदन से वदन
किया करुण क्रन्दन ।
तापसियाँ उसे करके श्रवण
दौड़ चली आईं उसी क्षण ॥

दोनों को संग अपने
तुरन्त कुटीर में लाकर
लगीं इधर-उधर की कई बातें कहने
उनका मानस बहलाकर ।
वृक्षों में नीर-सिञ्चन,
कुसुमराशि-चयन
आदि कई बातें करते-करते तभी
निद्रा की गोद में मग्न हो गयीं सभी ॥

= = = = = =


(तपस्विनी काव्य का सप्तम सर्ग समाप्त)
* * * *

[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * *

Friday, September 9, 2011

‘तपस्विनी’ काव्य दशम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Kavya Canto-10)

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher

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Tapasvini [Canto-10]
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[Canto-10 has been taken from pages 180-190 from my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : 'Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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दशम सर्ग
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पाकर तनय-रत्नद्वय
यत्न करके प्राणातिशय
तत्पर हुईं लालन-पालन में जनक-तनया,
निविड़ स्नेह-बन्धन लग गया ।
एक पल न छोड़ा समीप उनका,
हल्का समझा भार जीवन का ॥ (१)

स्नानार्थ दिन में एक बार वैदेही
थोड़ी दूरी में रहतीं तो आर्द्र वस्त्र में ही
दौड़ चली आतीं सत्वर
अत्यन्त व्याकुल-अन्तर ।
व्यग्र रहता उनका जीवन
करने नन्दनों के वदनारविन्द दर्शन ॥ (२)

शर्वरीश-कला का गर्व कुचल
बढ़ने लगे कुमारों के अंग युगल ।
आनन पूर्ण सोम समान
दिनोंदिन बने सौन्दर्य-निधान ।
मुख जननी का वे लगे पहचानने,
उन्मुख होने लगे गोद में उठने ॥ (३)

हँसते थे माता का मुख निहार,
गोद ढूँढ तुरन्त रोते ।
जननी वहाँ करके दुलार
गोद में बिठाने से आनन्द-झूलों में मस्त होते ।
निहार वदन बारबार
हँसते-हँसते हँसाते थे युगल कुमार ॥ (४)

मन में नहीं थी सती की कल्पना,
देखा भी नहीं था सपना ।
अपने दग्ध वदन में पुनर्बार
छा जायेगा मुस्कान का निखार ।
अपूर्व सुख की अपूर्व मुस्कुराहट
अपने आप हो जाती थी प्रकट ।
स्वामी ने नहीं लिया उस सुख का हिस्सा,
सोचकर मन में ऐसा
अपने भाग्य को सती
प्रतिदिवस थीं कोसती ॥ (५)

वदन-सरोज में रदन के बहाने
विराज समुज्ज्वल वाग्‌देवता ने
निसर्ग ज्योति बिखराई अपनी
कुन्द-चन्द्र-हिम-मोती-जयिनी सुहावनी ।
बजाई पहले वीणा मनोरमा,
सजाकर सुर
मृदुल मधुर
मा मा मा मा मा मा ॥ (६)
[1]

वही स्वर्गीय स्वन मलय पवन बन
पल्लवित करता जननी का जीवन ।
माता के अधरोष्ठ पर संग-संग
निखर आता प्रवाल-पाटल रंग ।
बढ़ती थीं दशन-पुष्प की कलियाँ उधर
लेकर चाँदनी की आभा सुन्दर ॥ (७)

मन भास्कर-सा भास्वर,
अधिकार कर इन्द्रासन का,
[2]
कुबेर-कोष की ओर हो अग्रसर
ससन्तोष बढ़ाता था प्रभाव वदन का ।
सोचता, अपना हस्तगत अभी
संसार सुख सौभाग्य सभी ॥ (८)

वाणी तुतली बोलने लगे दोनों कुमार
अधखिले सरसिज जिस प्रकार ।
उन भारती के हाव मनोरम,
नयन-विलास, लावण्य-विभ्रम
और सौम्य वेश निहार
होता था सती-प्राणों में पुलक-संचार ।
मोह था नृत्य-तत्पर
मन-भवन में निरन्तर ॥ (९)

बैठे चले
धरती के तले
धीरे-धीरे दोनों प्यारे
जानु-करतलों के सहारे ।
कुछ दूरी में ठहर
सती ने सहर्ष पुकार कर
चलन-शक्ति उनकी बढ़ाई ।
मुस्कुराकर सकौतूहल
माता के समीप चंचल
चले जाते दोनों भाई ॥ (१०)

कभी हाथों में मिट्टी लेते,
जिह्वा पंकिल कर देते ।
माता सुन्दर फल पकड़वातीं उन्हें,
वदन हिलाकर फेंकते मुन्ने ।
चारु चूर्ण चिकुर डोलकर भाते,
जैसे अरविन्द पर मिलिन्द मँडराते ॥ (११)

माता के हाथ थाम होने लगे खड़े ;
क्रम से अपने पैरों पर
दोनों करके निर्भर
चलने लगे हाथ पकड़े ।
अपने आप चरण चला फिर
क्रन्दन करते थे जब जाते गिर,
तब सती चूम सौम्य वदन
प्रसन्न करातीं उनका मन ॥ (१२)

वन-पंछियों को दोनों पुकारते,
सकौतुक उनका मनोहर रंग निहारते ।
मयूरों को पकड़ने दौड़ते,
पंखों को चाहते समीप जाकर ।
मृग-छौनों को पकड़ क्रीड़ा करते
सुमनों से उनका वेश सजाकर ॥ (१३)

कुमारों को ले घुमाते कानन के भीतर
तापस-तापसीगण प्रफुल्ल-अन्तर ।
उनके मस्तक और कपोल
सुमन-मालाओं से सजाते,
कुसुमित लताओं के झूलों में झुलाते ।
‘और’ ‘और’ बोल
हठ करते युगल सहोदर
खुशियों की कलियाँ खिलाकर ॥ (१४)

कुमारों के उज्ज्वल श्याम कलेवर
फूलों के झूलों में लगते नयन-प्रीतिकर ।
वनलक्ष्मी जैसे नथिया सुन्दर
लाड़ से डुलाती हरिन्मणि से अलंकृत कर ।
तरु-शाखा डोलने लगती
संग ले मस्ती ।
हँसी उड़ाकर दूसरी शोभाओं की,
दिखलाती भंगी भौहों की ॥ (१५)

मृगराज-बल से कुमारों को मण्डित कर
क्रम से बीत गये पाँच वत्सर ।
सरिता, उद्यान, शाद्वल, कानन में विहार
करने लगे स्वच्छन्द युगल कुमार ।
श्वापद-विपदाओं को मानता नहीं तनिक
उनका मन निर्भीक ॥ (१६)

चूड़ाकर्म कुमारों का उधर
सम्पन्न कर यथाविधान
ज्ञानोदधि महर्षि वाल्मीकि ने
बना दिये उन्हें
केशरी बलवान्,
लाकर सुदुस्तर विद्या-वन के भीतर ।
अज्ञान-कुञ्जरों का करने लगे संहार
वहाँ विहर दोनों कुमार ॥ (१७)

रस-रत्नभरा काव्य-सानुमान्
जहाँ राम-मृगराज विराजमान ।
रावण-गज की रुधिर-धार झर-झर
बहती बनकर निर्झर ।
रोतीं सिंही आश्रय कर गिरि-कन्दरा
झेल दन्तावल के दन्ताघात का दुःख गहरा ॥ (१८)

ऋषि-शेखर ने उस शैल के शिखर
कौशल से कुमारों को चढ़ाकर
खिलवाया उन्हें मृग-शावक मान,
परन्तु वे खेलने लगे शार्दूल समान ।
रामचन्द्र को किया मृगेन्द्र ज्ञान
सिंह-शावकों ने पिता को न पहचान ॥ (१९)

माता के समीप युगल नन्दन
करते महर्षि-प्रणीत रामायण गायन ।
वीणा बजाकर तान-लय संग सुस्वर
रामभक्ति-रस में मन डुबाते,
प्रेम-लहरों में अस्थिर होकर
अपने मस्तक नयन डुलाते ॥ (२०)

गान-गान में होते प्रकटित
तर्जन, गर्जन, विलाप हास्य सहित ।
स्फीत हो उठते वक्षस्थल
साथ बाहु-युगल ।
कभी-कभी बहने लगता
नयनों से नीर ।
काव्य-भाव की विद्युल्लता
प्राणों में समा जाती गभीर ॥ (२१)

कुमारों की रसना में रम्य-मूर्त्ति शोभना
निर्मल समुज्ज्वल नवीन भारती,
करके विचित्र मधुर लास्य रचना
थीं उल्लास वितरती ।
बरसाता उल्लास वही बनकर बादल
प्राण-प्राण में पीयूष-धारा सुविमल ॥ (२२)

तापसियाँ सीता के संग उधर
विशुद्ध संगीत-सुधा पानकर
हर्ष विषाद शान्ति सन्ताप सहित
सुख दुःख अनुभव करतीं अमित ।
आनन्द-क्षोभ से जाता हृदय पिघल,
बह जाता नयनों से अश्रु-जल ॥ (२३)

रामायण-नायक राघव के हृदय-हार की
मध्य-मणी जो जानकी,
कुमारों की हैं गर्भधारिणी जननी,
भागीरथी-तट-काननवासिनी बनी ।
थी यही बात
कुमारों को अज्ञात ।
छुपा उसे रखा था
महर्षि के निषेध ने सर्वथा ॥ (२४)

गाते राम-सीता के गुण-गौरव
अतिशय उत्सुकता से कुश लव ।
लज्जित रहतीं सती ले श्रवण-रस,
सुख में डुबा देतीं मानस ।
गोपन रख अपनेको सावधान
समय यापन करतीं तापसी-समान ॥ (२५)

रमणीय काव्य रामायण
सुन विमुग्ध मृगगण
लगा श्रुति करते ध्यान
निश्चल नयनों में काष्ठ-मृग समान,
भूल सब आहार ग्रास
विचरण प्यास ।
भरते मौन विहंगकुल
हृदय में श्रुति-संपत्ति अतुल ॥ (२६)

पादपगण पूर्णकुण्ड-कवरी के अन्दर
भर पुष्प-गुच्छ सुन्दर
अनुगान में रहते मगन,
करके साभिनय लता-हस्त की भंगी प्रदर्शन ।
लेटती रहती विभोर तमसा
अपूर्व आनन्द में विमुग्ध-मानसा ॥ (२७)

वसुधा के उर पर
धन्यवाद-ध्वनि में नृत्य-तत्पर
सुधा बहने लगती ।
चहुँदिशाओं से आये वनवासी-जन
उसी धारा में रहते मगन ।
अशेष श्रुति-गह्वर में उछल
अमरावती को प्रतिपल
वही धारा प्लावित करती ॥ (२८)

ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र आदि देवगण
वही गान सुन करते धन्यवाद अर्पण ।
प्रतीची, प्राची,
उदीची, अवाची,
सारी दिशा-सुन्दरियाँ
नृत्य करतीं ले मस्तियाँ ।
अपने गान-गर्व की टोकरियाँ बिखराकर
संग गन्धर्वों के अप्सरायें रहतीं तत्पर ॥ (२९)

लोक-लोक में करके विहार
व्यक्त करने लगे हर्ष अपार
मुक्त-कण्ठ मधुस्वर
नारद मुनिवर,
प्रशंसा कर वाल्मीकि-कविता-रस की,
सीता-राम के विमल यश की,
उनके पुत्रों के गायन की
और सुधावर्षी वीणा-निस्वन की ॥ (३०)

विश्व-विश्रुत जिनकी
अपनी वल्लकी,
वे बालकों की वल्लकी से आनन्दित स्वयम्
उसे कहकर उत्तम
प्रचार करने हुए तत्पर,
धन्य धन्य वे मुनिवर ।
दूसरों की प्रशंसा की प्रफुल्ल-मन,
साथ साथ किया अपना गौरव वर्धन ॥ (३१)

अपने गुणों के रहते लोग मुक्तस्वर
दूसरों के सद्गुणों की प्रशंसा में प्रवीण होकर
स्वगुण-पादप फलाते ।
धनुर्गुण से ही तीर चलाये जाते ।
सुमन-सुगन्ध ले समीरण
करता संसार में अधिक आनन्द वितरण ॥ (३२)

एकादश-वर्ष-वयस्क
हुए जब युगल बालक,
सम्पन्न हुआ उनका उपनयन ।
वेदाध्ययन बाद प्राप्त किये ज्ञान-नयन ।
प्रतिभा देख वेदज्ञ युगल सन्तान की
सारा दुःख त्याग देतीं जानकी ॥ (३३)

यमुना-नीर में अरुण-किरण की भाँति
नवीन तरुण रमणीय कान्ति
विचित्र कौशल दरशाकर
यमज कुमारों के श्यामल कलेवर में इधर
धीरे-धीरे लगी मण्डन करने,
वरुण-भण्डार से ऋण लेकर रत्न-किरनें ॥ (३४)

उनकी ज्ञान-मार्जित भाषा अपनी
श्रुति-हृदय की बनी पावनी ।
भाषानुसार हुआ व्यवहार,
चरित्र में देवत्व का सञ्चार ।
देदीप्यमान मानस, वचन और कलेवर
तीनों ने जीवन में रची प्रभा की लहर ॥ (३५)

श्लोक पाठ करते जब युगल नन्दन
भर जाता सुख-ज्योति से माता का जीवन ।
शोक-स्मृति की विभावरी
बन जाती अधिकाधिक मनोरञ्जनभरी ।
सुख का मूल्य समझता दुःखीजन,
सदा-सुखी का सुख वहाँ तुल्य नहीं कदाचन ॥ (३६)

निहार तनय-युगल के प्रफुल्ल रूप नूतन
रत्न-स्तूप मानते जननी-नयन ।
पुत्र-प्रशंसा माता की स्मृति में समाती,
सुधा की मधुर धारा बन जाती ।
उसमें स्वामी का सुयश महीयान्
सती के लिये बन गया स्वर्ग-सोपान ॥ (३७)

माता की गोद जिस दिन से त्याग कर
यमज बालक विहरने लगे निडर,
उसी दिन से जानकी अनुक्षण
करने लगीं तपोव्रत आचरण ।
बिताने लगीं अवशिष्ट जीवन
पति-चरणों में समर्पित-मन ॥ (३८)

ग्रीष्मकालीन नदी-प्रवाह की भाँति हो चला
सती जानकी का जीवन दुबला ।
कृष्णपक्षीय चन्द्र तुल्य उसने समझ ली
मृत्यु अमा-रात्री अपनी लक्ष्य-स्थली ।
[3]
स्वामी श्रीराम को मान
अंशुमान् समान
की यही कामना,
उससे संगम होगा अपना ॥ (३९)

सोचतीं सती : ‘ किसी प्रकार
स्वामी के पावन चरण दर्शन कर एक बार
समर्पित कर युगल नन्दन
तोड़ देती मेरे तन का बन्धन ।
उस मुक्ति-वन में प्राण-मृग मेरा
तुरन्त जाकर रचता अपना बसेरा ॥’ (४०)

= = = = =

(पादटीका :
[1] ‘सा रे गा मा पा धा नि’ - इन सात स्वरोंमें से ‘मा’ स्वर । अन्य अर्थ में ‘माँ’ उच्चारण ।
[2] इन्द्रासन = इन्द्र का आसन और पूर्व दिशा । कुबेर-कोष = कुबेर का भण्डार और उत्तर दिशा ।
[3] अमावस्या में सूर्य-चन्द्र-संगम होता है ।)
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(तपस्विनी काव्य का दशम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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‘तपस्विनी’ काव्य षष्ठ सर्ग- हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Kavya Canto-6)

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Canto-6]
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[Canto-6 has been taken from pages 101-120 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : 'Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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षष्ठ सर्ग
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एक दिन अम्बर में उठ चले चन्द्रमा
साथ ले चित्रा प्रियतमा ।
वन में खिलने लगीं
विमल नवमालिकाएँ ।
विकसित पुष्प-गुच्छ धारण कर
प्रमुदित-अन्तर
धीरे-धीरे डोलने लगीं
आश्रम की मल्ली-लतिकाएँ ॥

माधवी-वकुल-मल्ली-नियाली
सुमनों का सौरभ सम्भार
ले मन्द-मन्द कर रहा स्वच्छन्द विहार
समीरण तमसा के पुलिन पर,
सुन्दर उजली
चाँदनी को गले लगाकर ॥

सती-कुटीर के निकट ले आकार
अनेक प्रकार,
तरु-छाया में खण्ड-खण्ड चन्द्र-रश्मियाँ कोमल
धीरे-धीरे प्राची दिशा की ओर आगे चल
घटाती थीं कभी अपना शरीर
कभी बढ़ाती, कभी छुपाती फिर ॥

जगमगा रही शीतल चाँदनी सुन्दर ;
बैठी थीं सती मैथिली
कुटीर से थोड़ी दूरी पर
साथ ले अपनी सहेली ।
सती के समीप चाँदनी ऐसी थी भा रही,
मानो सती के अंगों से निखर आ रही ॥

खद्योत युगल उसी समय
एक ही पत्र में ले आश्रय
रहे थे द्युति वितर
चन्द्र से भी सुन्दरतर ॥

उन्हें करके अवलोकन
कह रही थीं सती मन-ही-मन,
‘अरे खद्योतो ! धन्य हो तुम सभी
पतंग-जन्म लेकर भी ।
तुमसे बढ़कर अधिक
अनेक जीव हैं जग में वास्तविक,
फिर भी तुम्हारी भाँति
और हो सकती किसकी कान्ति ?
हो बड़े भाग्यवान्,
पाया था तुमने विश्वपति से वर महान् ।
उसी कारण कान्ति तुम्हारी
दुनिया के नयनों में भरती खुशी प्यारी ॥’

चक्रवाक-ध्वनि इसी समय दी सुनाई,
बारबार उसने करुणा बरसाई ।
सती-नेत्र-नदी के कपोल-पुलिन तक
उछल गया बरबस वही करुणा-उदक ।
सहेली से छुपा स्वेद के बहाने
आँचल से तुरन्त वदन पोंछ दिया सीता ने ॥

बात समझ बोली सहचरी :
‘कहो सुशीले ! आती जब विभावरी
चक्रवाक क्यों रोदन करते ?
क्या वे विहग रहते
नगर के भीतर ?
और वहीं रोते अर्ध-रात्रि में कातर ?

यदि वे करते रोदन,
नागरिकगण उधर
क्या सोचते मन-ही-मन
सुनकर उनका करुण स्वर ?’

जानकी यह सुन तत्काल
न सकीं आँसू सम्हाल ।
वहीं कण्ठ-स्वर उनका
रोधक हुआ वचन का ॥

यह देख बोली सहचरी :
‘छोड़ो उन बातों को, प्यारी अरी !
मेरी चपलता क्षमा कर दो कृपया,
अकारण ही तुम्हें कष्ट पहुँचाया ॥’

बोलीं जनक-कुमारी :
‘अरी सखी प्यारी !
प्रदान न करने से अपना परिचय
अस्थिर हो रहे हैं मेरे प्राण निश्चय ।
भरोसा है मन में मेरे,
शेष जीवन यहाँ बिताऊंगी संग तुम्हारे ॥

न कहूंगी अपनी बात तुम्हारे पास
तो रहेगा कैसे मुझ पर तुम्हारा विश्वास ?
कह देने से बोझ मेरे दुःख का
निश्चित हो जायेगा हल्का ।
उससे समझ लोगी संसार
है किस प्रकार ॥

सखी ! मैं राजकुमारी
सम्पत्ति की डोली में भली
राजनगर की प्यारी
सुहानी गोद में पली ॥

हंस, केकी, कोकिल, शुक सारिकाओं के विमोहन
मधुर स्वर में गूँज रहा राजभवन ।
था चक्रवाक उधर
रजनी में रोदन-तत्पर ।
उसके लिये वहीं
मेरे वाल्य-हृदय में दुःख था नहीं ॥

सखी ! ले ली वाल्यावस्था ने बिदाई ;
तरुणिमा जब छाई,
देखा मैंने उधर
पधारे अनेक देशों से अनेक नरेश्वर ॥

रखा था पिताजी ने एक धनुष रत्नमय,
वह मनोरम था अतिशय ।
एक एक सारे नरेश्वर,
बैठ जा रहे थे धनुष एकबार खींचकर ॥

वहीं रत्न-मुकुट में छुपाकर भला
अपने शुक्ल केश,
बल दिखलाने लगे कई नरेश ।
कुछ नरपाल यौवन-सम्पन्न,
किशोर-केशरी की भंगी दिखला
हट गये धनुष स्पर्श कर अवसन्न ॥

दर्पभरी गमन-भंगी संग साहस निष्फल
निहार उन लोगों के सकल,
हँसी आती थी मेरे मुख में तब ।
बैठ प्रासाद के ऊपर
मैं कौतुक-अन्तर
सखियों के संग देख रही सब ॥

पधारे अन्त में एक क्षत्रियकुल-शिरोमणि तभी
जिनकी ज्योति से निष्प्रभ लगता मरकत भी ।
धनुष के समीप हुए विराजमान
मानो राजपुत्र-रूप स्वयं अंशुमान् ॥

उन्हें दर्शन कर चुपचाप
द्रवित हो गया हृदय मेरा अपने आप ।
तापसी-जीवन में यहीं
वही अनुभव है नहीं ॥

उपहास किये थे कितने
नरेशों के प्रति मैंने ।
परन्तु आ गया तुरन्त
सारी चपलताओं का अन्त ॥

ऐसा सौम्य रूप दर्शन
कर पाएंगे मेरे नयन,
कभी तो भावना अपनी
थी नहीं मेरे मन में, सजनी ! ॥

उनके रक्तिम चरण-युगल में उसी क्षण
किया प्रणिपात अर्पण,
मेरे निर्मल हृदय ने सविनय
भक्ति-प्रीति से तन्मय ॥

था मेरे पिताजी का प्रण,
‘करेगा जो धनुष भंग
सम्पन्न करवाएंगे मेरा पाणिग्रहण
उसीके ही संग ॥’

सोचा मैंने, ‘उसी दिन ही
समाप्त हो गया प्रण वही ।
पिताजी की आज्ञा लेकर
तपस्विनी बन जाऊंगी सत्वर ॥

कौन भंग करेगा शरासन
इसमें निश्चित बात क्या ?
वीर-शिरोमणि ने तो मेरा मन
अब है क्रय कर लिया ॥

एक में मन हो अनुरागभरा
और पति मिले यदि कोई दूसरा,
जीवन में मृत्यु में तब अपनी
होगी दुर्गति दारुण घनी ॥

रम्य हस्त जिनका
भाजन है पुष्प-वाणासन का ।
उनका यह धनुष धारण करना
केवल अवमानना ॥’

मेरा था सौभाग्य मंगलमय,
वीरश्रेष्ठ ने उसी समय
कर दिया धनुष भंग
मेरा हृदय-सन्ताप भी संग-संग ॥

सम्पन्न हुआ उनके साथ यथारीति
मेरा परिणय मांगलिक ।
पाकर उनकी स्वर्गीय प्रीति
मैं धन्य हो गयी आन्तरिक ॥

वीर-प्रवर के थे अनुज त्रय,
मेरी तीनों भगिनियों से हुआ उनका परिणय ।
जब किया पितृ-पुर से पति-पुर प्रस्थान
स्वामी के हाथ एक धनुष ज्योतिष्मान्
अर्पण किया मेरे सामने
क्षत्रियकुल-केतु भार्गव-पुंगव परशुराम ने ॥

इस घटना को देखकर
मेरे मन में आ गया डर ।
होगा मेरे प्राणनाथ के सहित
अन्य किसी तेजोमयी नारी का मिलन,
जो बन जायेगी निश्चित
मेरी प्रीति की बैरन ॥

उसी धनुष में मेरे प्रिय स्वामी ने
किया जब शर-सन्धान,
अविलम्ब भार्गवी वीरलक्ष्मी ने
वर-माल्य पहनाया उन्हें ससम्मान ।
नलिनी के प्रति जैसे रश्मि सूर्य की,
वीरश्री ने बढ़ाई प्रीति मेरे हृदय की ॥

मानस ने एक बात सोच रखी,
फल दूसरा हो जाता ।
दुनिया में विधि का विधान, सखी !
समझ में नहीं आता ॥

तेजोमय वीर-केतन
अम्बर में फहराकर,
अग्रसर हुए उल्लसित-मन
मेरे प्रियतम वीरवर ॥

सम्पत्ति-कानन मेरा श्वशुरागार ;
आयी जब वहीं शुभ-वार्त्ता की बयार,
सादर उसे निहार
आनन्द का पुष्प-सम्भार
शोभा-तरु में लगा खिलने ।
लोगों का अन्तःकरण
कर लिया आकर्षण
प्रभा-पल्लव ने ॥

नव विवाहित चार वीर भ्रातृगण
दीप्यमान भाये धारण कर रत्नाभरण ।
उससे भी अधिक सजा वधुओं के वेश उज्ज्वल,
परम आनन्द से वे पधारे राजमहल ॥

आली ! उस राजभवन में एक थी वृद्धा,
उसी समय बातों में बरसने लगी प्रीति-सुधा ।
नक्षत्र-पुञ्जों से मनोहर
चतुर्दिशाओं के अम्बर
राजभवन में विराज
उसे मञ्जुल सजाने लगे आज ॥

देखा मैंने, भगिनियों के मुखमण्डल प्रसन्न,
नव प्रीति-लज्जा से थे लालिमा-सम्पन्न ।
उनमें स्वेद बिन्दु-बिन्दु निकल
रत्न-दीप्ति से दीप्तिमान् हो गये सकल ।
तुम्हारे स्वेदयुक्त ललाट पर
आज निहार सुन्दर
सुमधुर चाँदनी,
उस बात का स्मरण हो रहा, सजनी ! ॥

स्वर्ग-वैभव-भोग
जिसे कहते हैं लोग,
श्रवण उसे समझकर सच
मन में जगाता लालच ।
स्वर्ग-लालसा में नरेश्वर
राजसिंहासन त्याग कर,
वन में फलमूलाहारी बन
तपश्चर्या में रहते मगन ॥

सखी ! श्वशुर-भवन में
मैंने देखा जैसा,
सोचा, महेन्द्र के अमर-निकेतन में
कभी होगा नहीं वैसा ॥

श्वशुर-श्वश्रुओं के स्नेह कितने
और प्राणपति की अपार प्रीत ने
स्वर्ग-भुवन के प्रति
मेरे मन में जगायी हेय प्रतीति ॥

सम्पन्न हुए नव-नव
कितने भव्य महोत्सव ।
संसार में ऐसा होता, यही बात
नहीं थी मुझे ज्ञात ॥

किया मैंने समय अतिवाहित
पति के प्रेम-रत्न सहित
राजभवन के रत्नों के मनभावन
मयूख-सुख में होकर मगन ।
चक्रवाक के करुण स्वर करने श्रवण
मुझे निशिदिन अवकाश नहीं था एक क्षण ॥

बीत गये बारह
वर्ष इसी तरह,
बारह दिनों के समान
हुए मेरे मन में प्रतीयमान ॥

एक दिन मेरे समीप आकर
बोले सहास्य-वदन प्राणेश्वर :
‘आज की रजनी
अधिवास में बितायेंगे, सजनी !
तुम्हें हृदयालंकार बनाने की
अभिलाषा रख आन्तरिकी,
राजलक्ष्मी अर्पण करेगी कल
मुझे वर-माला सुमंगल ॥’

तब मैंने कहा :
‘प्राणेश्वर ! आपका पूर्ण रहा
जो स्वर्गीय अनुराग मुझमें यहीं,
विभाजित तो होगा नहीं ?’

वे बोले फिर :
‘यह स्वाभाविक हो ही भले,
झुक जाता राजलक्ष्मी का सिर
सती के चरणों तले ।
ऊपर चल नीर पारावार का
बादल बनता अम्बर में,
मंगल विधान कर संसार का
समा जाता पारावार के उदर में ॥’

मंगल विधि से भली
वही विभावरी बीत चली ।
मंगल वाद्य सबेरे
श्रुतिगोचर हुए बहुतेरे ॥

गये सचिव के साथ
पिताजी के समीप मेरे प्राणनाथ ।
वहींसे करके प्रत्यावर्त्तन
कहा मुझे दुःखभरा वचन :
‘जीवन-संगिनि ! पास तुम्हारे
समर्पित कर मेरे प्राण प्यारे
आज करता हूँ वनवास हेतु प्रस्थान
पिताजी की आज्ञा मान ।
युवराज होंगे मेरे प्रिय भरत भाई,
उनके प्यार में हैं राजलक्ष्मी आई ।
मानिनि ! त्याग तुम ज्येष्ठा का अभिमान
करोगी राजमान्य से भरत का सम्मान ॥’

स्वामी का मुखमण्डल प्यारा
मैंने उधर निहारा,
पहले की भाँति वह लगा
शान्ति से रहा था जगमगा ॥

करने कानन-गमन
चञ्चल हो रहा स्वामी का मन,
परन्तु मेरे लिये जैसे उनका हृदय
हो रहा था व्याकुल अतिशय ॥

मैं मान लेती परिहास
समस्त कथन उन्हींका,
मच गया उच्छ्‌वास
चतुर्दिशाओं में रुलाई का ॥

हाहाकार-नाद से अतिशय
भवन लगा काँपने,
मैंने सोचा साश्चर्य,
‘ये क्या अद्भुत सपने ॥’

‘जीवेश्वर !’ कहा मैंने चकित-मन,
‘यदि आप प्रस्थान करेंगे कानन में,
क्या रहा प्रयोजन
इस दासी का राजसदन में ?

मैं राज्ञी बननेवाली थी,
भिखारिन बनूंगी ।
वन में विहर प्रिय साथी
श्रीचरणों की सेवा करूंगी ॥

श्रीचरणों में मति मेरी,
श्रीचरणों में गति मेरी ।
आपके बिना मैं तनिक-भी
चाहती नहीं स्वर्ग-वैभव कभी ॥

आपके प्रिय अनुज रहेंगे
युवराज-पद पर विराजमान,
जब आप हँसते-हँसते करेंगे
कानन की ओर प्रस्थान ॥

अलंकृत करेंगी युवराज्ञी-पदवी
मेरी भगिनी माण्डवी ।
मैं न चलूंगी क्योंकर
आपके चरण-चिह्न की अनुगामिनी होकर ?

यदि उसी सुख से वञ्चित रहूंगी,
मैं जीवित नहीं रह पाऊंगी ।
प्रभु-चरण-सेवा के बिना सीता
समझती सारा संसार तीता ॥’

स्वामी के मन के भीतर
था जो कुछ विषाद,
दूर हो गया सत्वर
मेरी बातें सुनने के बाद ॥

पिता, माता, भ्राता, बन्धुवर
सेवक परिजन सबको त्याग कर
बने काननगामी
मुझे साथ ले प्रिय स्वामी ॥

मेरे एक देवर थे ‘लक्ष्मण’ नाम के,
बने वनवास-सहचर प्रियतम के ।
विस्मृति-सरिता के भीतर
समस्त राजसुख फेंककर,
वन-पर्वतों में घुमने लगे हम तीन
अपनाकर हर्ष नवीन ॥

पाकर सखियाँ नयी
मुनिकन्याओं को वनस्थल में,
मैं सानन्द डूब गयी
उन्हींके स्नेहसुख-जल में ॥

जीवन में स्फूर्तियाँ भर सरस
व्यतीत हुए हमारे कई दिवस,
पञ्चवटी कानन के भीतर
पुनीत गोदावरी के तट पर ॥

प्रत्यूष में बयार
ले वन-पुष्पों का सौरभ-सम्भार,
बहकर धीर-धीर
महका देती हमारा कुटीर ॥

वहाँ आकर पिक
बन राजवैतालिक
भर देता था कर्ण-कुहर
बरसा पञ्चम स्वर मनोहर ॥

नृत्यरत हो सबेरे
उल्लसित मयूर मयूरी
सब करते थे मेरे
आश्रम-आंगन की शोभा पूरी ॥

आते थे सकौतूहल
हरिण-शावक दल-दल
मेरे हाथों से नीवार
करने के लिये आहार ॥

त्याग माता का अंक
कलभ कलभी
खेला करते मेरे पास निःशंक
मेरे हाथों से आहार ले सभी ॥

नाना प्रकार सुमन ले
गूँथ सुमञ्जुल हार,
अर्पण करती मैं प्राणनाथ के गले
आन्तरिक प्रीत्युपहार ॥

मेरी वेणी में सजा प्रसून-आभरण
प्रिय कान्त कौतुक रच अन्तरंग,
करते थे पुष्प-वन भ्रमण
मुझे ले अपने संग ॥

कहते थे : ‘सखी ! तुम प्रियतमा
मेरी प्रीति की प्रतिमा,
संगिनी मेरे जीवन की,
स्वर्ग-सुख की गरिमा हो जानकी ॥’

तभी मैं कहती :
‘हे प्राणनाथ !
जो प्रेम-अधिकार आपका अपना,
नहीं की जा सकती
कभी उसके साथ
तुच्छ स्वर्ग-सुख की तुलना ॥’

एक दिन सुमनभरा चन्द्रातप सुन्दर,
पुष्पमय स्तम्भ सहित सादर
मैंने निर्माण कर सिंहासन,
कदम्ब-फूलों से सजाया सुशोभन ।
फूलोंभरा छत्रवर,
फूलों का रमणीय चामर,
पुष्प-पुञ्ज ले विचित्र व्यजन बना
केतकी-पंखुरियों से की मुकुट रचना ।
रत्न-रूप खचित कर कई सुमन मनोरम,
बोली मैं विनम्र-वदन :
‘मेरे प्रभो प्रियतम !
करूंगी श्रीचरणों का अर्चन,
कृपया इसे स्वीकार
सिंहासन पर विराजिये एक बार ॥’

महामना प्राणेश्वर
बोले मुस्कुराकर :
‘मना है प्रिये !
राजकीय उपचार मेरे लिये ।
आज सजाऊंगा सुन्दरी
तुम्हें वनफूलेश्वरी ॥’

ऐसा कहकर जोर पकड़ मेरे हाथ
सजाने लगे मुझे फूलों से प्राणनाथ ।
अपनी शपथ से बातें जोड़
मेरी आपत्तियाँ तोड़,
खड़े रहकर मेरे सामने
लगे मुझे निहारने ॥

मुद्रित हो गये मेरे नयन लज्जाधीन,
द्रवित रही मैं कुसुमासन पर समासीन ।
प्रियतम रसिक-शेखर
बोले वाणी प्रीतिभरी :
‘करो करुणा-कटाक्ष-पात सादर
अरी कुसुमेश्वरी !’ ॥

वहीं अवलोकन कर
उनका वदन आनन्द-दीप्यमान,
मैं बोली : ‘विवेकी-प्रवर !
हुआ नहीं यह समुचित विधान ।
प्रभु-चरण-पूजन हेतु
योग्य नहीं जो वस्तु,
वह कभी होती क्या
तुच्छ दासी की भोग्या ?’

वे बोले : ‘रही है सदा
रीति यह प्रणयी-प्रणयिनी की,
बढ़ाकर एक अन्य की मर्यादा
प्राप्त करते प्रीति आन्तरिकी ॥’

प्रियतम के मुख से सारी
सुनकर बातें प्यारी
धन्य समझ भाग्य अपना
मैं सहर्ष रही निर्वचना ॥

धीरे-धीरे आया सायं-समय,
गगन में हुआ कलाकर उदय ।
प्राणेश्वर लगे विहरने
कानन में मेरा हाथ ले ।
फिर मेरा स्वान्त रञ्जन करने
वनवास-सुख बयान करते चले ॥

अदूर में उसी समय
सुन चक्रवाक-स्वन,
सहसा प्राणेश्वर ने सप्रणय
चूम लिया मेरा लपन ॥

कौतुकवश मैंने प्रश्न किया,
‘कारण उसका है क्या ?’
उन्होंने जो कहा,
अब उसका स्मरण हो रहा ॥

वे बोले : ‘प्रिये !
चक्रवाक से कान्ता उसकी दूर रही ।
दुःखानल में इसलिये
दग्ध हो रहा विरही ।
संगिनी के संग-सुख में खूब
दिनभर वह रहता डूब ।
अभी जीवन अपना
तिक्त समझ रहा प्रिया के बिना ॥

यदि कानन-सहचरी
तुम न होतीं मेरी,
वेदना-दग्ध होता मैं इस पल
वन के भीतर भटकता विकल ।
कह रहा हूँ जो जो सुख वनवास में आते,
मेरे जीवन को सब शुष्क कर देते ॥

स्वभाव-विकल है जीवन प्रेमी का,
साथ जब होती नहीं प्रेमिका ।
व्याकुल जीवन भारी
व्यर्थ समझता दुनिया सारी ॥

जब जीव बहता
संसार-पारावार में आकर,
पार जाने का भरोसा रहता
वनिता-नैया के आश्रय पर ॥

अनुभव विरह दुःख का
मुझे तब था नहीं ।
सब सुन सलज्ज नम्र-मस्तका
मैंने हँस दिया वहीं ॥

हाय ! कुछ काल के अनन्तर
उस दारुण कष्ट ने
मेरे जीवन में अपने,
कर लिया अधिकार पूर्णरूप से आकर ॥

भुक्तभोगी करता अनुभव
दूसरों का दुःख वास्तव ।
आज चक्रवाक के विलाप ने
बहा दिये मेरे नयनों से आँसू घने ॥’

बोली तापसी : ‘अरी सहेली !
बात निश्चित मैंने समझ ली ।
तुम्हारे प्रियतम का हृदय महान्
अपार प्रेमामृत-निधान ॥

चक्रवाक समान महाराजा वे
रोते होंगे आँसू बहा आँखों से अपनी ।
अविलम्ब ही बीत जावे
तुम्हारी विपदा की रजनी ॥

उजड़ गया है तुम्हारा
संसार सुनहरा ।
हुआ क्यों इस प्रकार
दारुण दुर्विचार ?
जिसे नरेश्वर ने
संपत्ति मानी थी जीवन की,
उसे त्याग करने
कैसे इच्छा हुई उनकी ?

विधि का है जो विचार,
उसे बारबार धिक्‌कार ।
कहीं क्या कर डाला,
ला गरल अमृत के ऊपर डाला ॥’

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(तपस्विनी काव्य का षष्ठ सर्ग समाप्त)
* * * * *


[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * *

Thursday, September 1, 2011

तपस्विनी: एक परिचय (Tapasvini: Ek Parichaya) Dr.Harekrishna Meher




















Original Oriya Mahakavya ‘TAPASVINI’  
of Poet Gangadhara Meher (1862-1924). 
*
Complete Translation into Hindi, English and Sanskrit languages
By : Dr. Harekrishna Meher.

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Tapasvini : Ek Parichaya / Dr.Harekrishna Meher 
[ Taken from My Hindi ‘Tapasvini’ Book ]
*
This Article is an Introduction to My Hindi Translation 
of ‘Tapasvini’ Kavya
Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, 

Orissa, in the year 2000.
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* तपस्विनी : एक परिचय * 
लेख : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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 ॥ १ ॥ 
भारतीय साहित्य के महान् प्रतिभाशाली निर्माताओंमें से अन्यतम विशिष्ट शिल्पी हैं ओड़िशा के स्वभावकवि गंगाधर मेहेर । ओड़िआ वाङ्मय के इन मूर्धन्य काव्यकार का जन्म हुआ था ९ अगस्त १८६२ ख्रीष्टाब्द पवित्र श्रावणी पूर्णिमा रक्षाबन्धन के दिन तत्कालीन सम्बलपुर जिल्लान्तर्गत बरपाली गाँव में और तिरोधान ४ अप्रैल १९२४ चैत्र अमावस्या में । उनकी कृतियों का संकलन ‘गंगाधर ग्रन्थावली’ ओड़िशा में सुप्रसिद्ध है । उनके प्रमुख काव्य हैं : ‘तपस्विनी’, ‘प्रणयवल्लरी’, ‘इन्दुमती’, ‘कीचकवध’, ‘उत्कललक्ष्मी’, ‘अयोध्या-दृश्य’, ‘पद्मिनी’ आदि । ग्रन्थावली कई बार प्रकाशित होकर बहुत लोकप्रिय बन चुकी है । उनकी कृतियों तथा जीवन की विभिन्न दिशाओं पर कई शोध ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । विद्यालय पाठ्य की दृष्टि से अल्पशिक्षित होने पर भी कवि ने अपने संघर्षमय जीवन में मौलिक प्रतिभा का उत्कृष्ट परिचय प्रदान किया है ।

उनकी रचनाओं में मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति के आदर्श और उत्कर्ष प्रतिपादित किये गये हैं । रामायणीय तथा महाभारतीय भावों से कवि की अमर कृतियाँ कुछ प्रभावित हैं । उनकी मौलिकता अनन्य रूप से सहृदय जनों का अन्तःकरण हर लेती है । काव्यों के अतिरिक्त कवि ने लिखे व्यङ्ग्य, देशात्मबोधक, भक्तिरसात्मक और समाज-संस्कारात्मक कई गीत, जो ओड़िशा की पुर-पल्लियों में भी समादृत हैं । समस्त विश्व को मधुमय और अमृतमय दर्शानेवाले कवि गंगाधर वास्तव में सारस्वत गगन के एक अतुलनीय दीप्तिमान् ज्योतिष्क हैं ।

॥ २ ॥

‘तपस्विनी’ महाकाव्य गंगाधर की रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । श्रीरामचन्द्र की वीर-गाथा का व्याख्यानकारी महान् संस्कृत आदिकाव्य रामायण की कथावस्तु पर आधारित ‘तपस्विनी’ कवि गंगाधर की एक अनुपम कृति है । महर्षि-वाल्मीकि-आश्रम में श्रीराम-पत्नी सीतादेवी का निर्वासनोत्तर जीवनयापन काव्य का मुख्य विषय है । करुणरस-प्रधान एकादश-सर्ग-युक्त यह काव्य ‘वाल्मीकि-रामायण के उत्तरकाण्ड’, कालिदास-कृत ‘रघुवंश’ महाकाव्य और भवभूति-प्रणीत ‘उत्तररामचरित’ नाटक से प्रसंगानुरूप प्रभावित है । परन्तु मौलिक उद्भावना, विषयवस्तु-संयोजना, वर्णना-शैली, शब्दच्छटा, सांगीतिक मधुरिमा और सरसता से यह काव्य कवि गंगाधर की स्वकीय मौलिकता का प्रद्योतक है । ओड़िआ के चतुर्दशाक्षर, रामकेरी, बंगलाश्री, चोखि, रसकुल्या, कलहंस-केदार, केदारकामोदी, नटवाणी, कल्याण-पड़िताल आदि सुमधुर छन्दों तथा रागों में काव्य की रचना की गयी है । प्राचीन और आधुनिक ओड़िआ छन्दों का सुसमन्वय प्रतिष्ठित है कवि की इस कीर्त्तिशालिनी कृति में ।

ओड़िआ भाषा के उत्कर्ष प्रतिपादन तथा ओड़िआ साहित्य की समृद्धि के लिये कवि ने ‘तपस्विनी’ महाकाव्य के प्रणयन से अशेष ख्याति प्राप्त की । ओड़िआ साहित्य के कविवर राधानाथ राय, व्यासकवि फकीरमोहन सेनापति और पल्लीकवि नन्दकिशोर बल प्रमुख गुणग्राही विद्वान् कवियों की प्रेरणा ने कवि गंगाधर को सारस्वत दिशा में अधिक उत्साहित किया था ।

भारतीय संस्कृति में पली एक नारी के महनीय चारित्रिक विश्लेषण के लिये कवि ने १९१४ में ‘तपस्विनी’ की रचना की थी । १९१५ में ‘तपस्विनी’ का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ । अब तक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । निर्वासन को अपना भाग्य-दोष मानकर रामचन्द्र की प्राणप्रिया सीता ने पतिभक्ति को कैसे दृढ़तर और उच्चतर बनाया था, फिर वनवास को पति-हितसाधिनी तपस्या का रूप देकर कैसे तपस्विनी का जीवन बिताया था, इन विषयों का वर्णन कवि का मुख्य उद्देश्य है । ‘तपस्विनी’ काव्य के ‘मुखबन्ध’ में कवि ने आशा व्यक्त की है कि पाठक अपने अपने हृदय-स्थित सीता के उज्ज्वल, निर्मल तथा पवित्र चरित्र-चित्रित स्मृतिपट का एक बार उद्घाटन करके नारी-हृदय की प्रगति विधान करेंगे ।

[‘तपस्विनी’ काव्य की लोकप्रियता का वर्द्धन करने मैंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत - तीनों भाषाओं में इसके सम्पूर्ण पद्यानुवाद किये हैं । प्रस्तुत लेख में उद्धृत ‘तपस्विनी’ की पंक्तियाँ सम्बलपुर विश्वविद्यालय द्वारा २००० में प्रकाशित मेरे हिन्दी-अनुवाद से ली गयी हैं ।]

॥ ३ ॥
कवि गंगाधर द्वारा प्रयुक्त ‘तपस्विनी’ शब्द विशेष रूप से महाकवि-कालिदास-रचित ‘रघुवंश’ काव्य के चतुर्दश सर्ग के ‘तपस्वि-सामान्यमवेक्षणीया’ और ‘साहं तपः सूर्य-निविष्ट-दृष्टिः’ श्लोकांश से अपनाया गया है । मिथ्या अपवाद के कारण राजा रामचन्द्र द्वारा परित्यक्ता होकर भी सीता सामान्य तपस्वी की भाँति, राज्ञी की भाँति नहीं, राज-कृपा की आशा रखती हैं ‘रघुवंश’ काव्य में । कवि गंगाधर ने ‘तपस्वी’-शब्द के स्त्रीलिंग में ‘तपस्विनी’ शब्द का प्रयोग किया है सीता के लिये । ‘तपस्विनी’ काव्य सीता की निर्वासनोत्तर करुण कहानी को लेकर रचित होने पर भी ओड़िआ साहित्य में एक ‘लघु रामायण’ का स्वरूप है, चूँकि तापसी-सखी के समक्ष सीता ने अपनी वाल्यावस्था से लेकर निर्वासन तक सारी रामायणी कथाएँ सुनाई हैं और अगली घटनाएँ काव्य की मुख्य कथावस्तु है । रामचरित के आधार पर ‘रामायण’ के नामकरण की भाँति मुख्य रूप से सीताचरित के आधार पर गंगाधर-प्रणीत इस काव्य को एक ‘सीतायन’ कहा जा सकता है ।

ग्यारह सर्गों में ग्रथित ‘तपस्विनी’ काव्य का विषय सर्गानुक्रम से संक्षेपतः निम्नोक्तप्रकार है । कवि गंगाधर ने निर्विघ्न सफल रचना के लिये भारतीय काव्य-परम्परा-सम्मत मंगलाचरण की उपस्थापना की है । विशेषता यह है कि सर्वप्रथम भारती देवी की अर्चना जिज्ञासात्मिका है इस तरह :

‘कौन तू ज्योतिर्मयी ?
वेश तेरा पावन समुज्ज्वल ;
इन्द्रनीलमणि-कान्ति-जयी
सुन्दर हैं तेरे कुन्तल ॥


तेरा शुभ्र सूक्ष्म परिधान
भेदकर निकली,
हृदय में कर रही आह्लाद प्रदान
कान्ति कलेवर की उजली ॥


तू चाँदनी घनी होकर
क्या बन गयी है शरीराकार ?
लेट रहा तेरे पैरों पर
केशों के व्याज अन्धकार ॥’


प्रसंगतः कवि ने विषय-वस्तु की सूचना दी है इसप्रकार :-

‘वाल्मीकि-आश्रम की ओर मन है दौड़ चला,
करने निर्वासिता सीता के दर्शन ।
जीर्ण हृदय उन्होंने सीं लिया कैसे भला ?
किसके साथ कैसे बिताया जीवन ?


अयि कृपावति !
कृपया तू दे शक्ति ।
पवित्र हो जाये मेरा मन देखकर
और हाथ लिखकर ॥’


तदुपरान्त गंगा-तट पर वाल्मीकि-आश्रम के पास सीता-निर्वासन की दुःखभरी घटना प्रारंभ होती है । सजीव प्रकृति असहाया सीता के प्रति समवेदना प्रकाशित करती है ।

द्वितीय सर्ग में, रामप्राणा निर्वासिता सीता को महामुनि वाल्मीकि से पितृ-स्नेह और वृद्धा तापसी अनुकम्पा से माता का प्यार प्राप्त होता है शान्ति-रानी-शासित आश्रम-राज्य में । तृतीय सर्ग में, सीता-परित्याग के उपरान्त श्रीराम के मानसिक द्वन्द्व और राज्य-शासन में अनासक्त भाव की वर्णना उपलब्ध होती है । सीता और राम की विरहावस्था ने इसमें मार्मिक रूप धारण किया है । चतुर्थ सर्ग की उषा-वर्णना सर्वाधिक लोकप्रिय है । कमनीय शान्त प्रकृति सीता को साम्राज्ञी के राजकीय सम्मान से विभूषित करती है । सूर्योदय की सूचना देनेवाली उषादेवी के प्रति सीता की भक्ति, सीता के प्रति तमसा-नदी का मातृ-प्रेम और वनलक्ष्मी के प्रति सीता की सखी-प्रीति अत्यन्त रोचक, मधुर और हृदयस्पर्शी है ।
पञ्चम सर्ग में, वसन्त ऋतु का मनमोहक चित्रण और सीता के प्रति तापसी अनुकम्पा का उपदेश सन्निवेशित है । षष्ठ सर्ग में, सीता तापसी-सहेली के सम्मुख अपनी वाल्यावस्था से वनवास तक सारी पिछली घटनाएँ सुनाती हैं । सप्तम सर्ग में, वही क्रम चलता रहता है निर्वासन की घटना पर्यन्त । अष्टम सर्ग में, ग्रीष्म ऋतु की वर्णना के साथ सुन्दर प्रकृति-चित्रण पाठक-मन को आकर्षित कर लेता है । चित्रकूट, महानदी, गोदावरी और अयोध्या सजीव व्यक्ति के रूप में सीता के मनश्चक्षु के समक्ष उपस्थित होकर अपनी अपनी दीनता और समवेदना प्रकट करते हैं । नवम सर्ग की वर्षावर्णना में प्रकृति सीता के पुत्र-जन्म पर आनन्दोत्सव मनाती है । दशम सर्ग में, कुश-लव की वाल्यक्रीड़ा, शिक्षा तथा संगीत गान के साथ वीणावादन की मुख्य घटनाएँ चित्रित की गयी हैं ।

अन्तिम एकादश सर्ग में, महर्षि वाल्मीकि के मन में राम-शासन-विषयक भावना, राम के उत्तराधिकारी के रूप में यमज कुमारों की योग्यता और अश्वमेध यज्ञ के शुभ अवसर पर उपस्थित होने के लिये वाल्मीकि को श्रीरामचन्द्र द्वारा निमन्त्रण आदि के सरस चित्रण पाये जाते हैं । महाराज रामचन्द्र को सीता का पत्र इस सर्ग में कवि गंगाधर की विशिष्ट पहचान है । यज्ञ-वृत्तान्त सुनकर सीता चिन्तित दिखाई पड़ती हैं महारानी की मर्यादा को लेकर । भारतीय समाज और परम्परा के अनुसार यज्ञ-स्थल पर यजमान के साथ धर्मपत्नी की उपस्थिति अनिवार्य रहती है । पत्नी है पति की सहधर्मिणी । सीता आँसूभरे नयनों में पत्र लिखती हैं अपने प्राणेश्वर महाराज रामचन्द्र को । उनके मन में सन्दिग्ध भावना जाग उठती है कि श्रीराम ने द्वितीय विवाह किया होगा यज्ञानुष्ठान में सहधर्मिणी की निश्चित उपस्थिति हेतु । उन भाग्यवती दूसरी नयी रानी की पूर्वतपस्या को सीता सीखना वाहती हैं । बाद में सीता प्रच्छन्न आनन्द में डूब जाती हैं , जब कुश-लव के मुखों से सुनती हैं कि श्रीराम ने सीता की स्वर्ण-प्रतिमा को सहधर्मिणी बनाकर यज्ञवेदी पर स्थापित किया है । हस्तलिखित पत्र छुपाकर जानकी अपने प्रियतम प्रभु से आन्तरिक क्षमायाचना करती हैं । वाल्मीकि और सीता दोनों से रामायण गान आदि भविष्य कार्यक्रम के बारे में यमज कुमार उपदेश प्राप्त करते हैं । निद्रा और योगमाया सती सीता को गोद में सुलाने पर्णशाला के भीतर प्रवेश करती हैं । सीता रामचन्द्र के राज्याभिषेक का दर्शन करती हैं महारानी के रूप में अपने साथ । इस मंगल अवसर पर देव-गन्धर्वादि पुष्पवृष्टि करते हैं । ‘जय सीताराम’ ध्वनि से व्योममण्डल के साथ समग्र भुवन गूँज उठता है । सती सीता इस आनन्दमय दृश्य को देखकर मुग्ध हो जाती हैं । ‘तपस्विनी’ काव्य यहीं पर पूर्णता प्राप्त होता है ।

॥ ४ ॥

संस्कृत के महाकवि कालिदास और अंग्रेजी के वाड़्‌स्वार्थ की तरह गंगाधर मेहेर ओड़िआ साहित्य के ‘प्रकृति-कवि’ माने जाते हैं । कवि गंगाधर ने अपनी प्रतिभा की आँखों से प्रकृति के अन्तःस्वरूप का सूक्ष्म तथा गहरा निरीक्षण किया है । कवि की समस्त कृतियों में बाह्य प्रकृति तथा अन्तःप्रकृति का मनोरम आलेख्य अंकित हुआ है । विशेष रूप से ‘तपस्विनी’ काव्य में प्रकृति-चित्रण अत्यन्त मार्मिक है । प्रकृति की भीम, कान्त, करुण, सौम्य और उदार मूर्त्तियों में सीता के प्रति अपूर्व स्नेह-सहानुभूति व्यक्त की गयी है, अतिशय भावोद्दीपक, रस-पेशल तथा हृदयावर्जक रूप में ।

प्रथम सर्ग में वाल्मीकि-आश्रम के पास परित्यक्ता भूपतिता गर्भवती सीता की दुर्दशा देखकर संवेदनशीला प्रकृति भीम-रूप धारण करती है । उदाहरण स्वरूप :-

‘नियति के विरुद्ध
छेड़ने युद्ध
प्रबल गरज उठा ले तलवार
ताल-तरु हाथ में अपने ।
मानो निकाला उसने
पत्र का तीर,
हिलाकर बारबार
बया-नीड़ का तूणीर ॥’


द्वितीय सर्ग में, स्वामी-विरहिता पतिप्राणा सीता को जब वाल्मीकि प्रबोधना देते हैं, उसी प्रसंग पर सागर के प्रति नदी की स्वाभाविक प्रीति का दृष्टान्त अत्यन्त मार्मिक है । कवि के वर्णन में :-

‘सागर के प्रति
सरिता की गति
रहती स्वभाव से ;
जब शिला-गिरि-संकट
सामने विघ्नरूप हो जाते प्रकट,
उन्हें लांघ जाती ताव से ।

भूल जाती सब
पिछली व्यथाएँ सागर से मिलकर ।
दोनों के जीवन में तब
रहता नहीं तनिक-भी अन्तर ॥


संयोगवश यदि बीच में उभर
ऊपर को भेदकर
छिन्न कर डालता बालुकास्तूप
सरिता और सागर के हृदय को किसी रूप,
वह स्रोतस्वती
मर तो नहीं सकती ;

सम्हालती अपना जीवन-भार
ह्रद-रूप बन हृदय पसार ॥’


तृतीय सर्ग के प्रारंभ में कवि की लेखनी से प्रकृति-चित्रण हृदयहारी प्रतिभात होता है । गंगाधर की काव्यिक कल्पना में सायंकालीन वर्णन इसप्रकार है :-

‘भागीरथी-तट पर लक्ष्मण
वैदेही को जब त्याग चले,
ससिन्धु वसुन्धरा में खरांशु-किरण
फैली थी विमल गगन के तले ॥

राम-रमणी की दुर्दशा देव-राज्य को होगी दृश्य,
तो लज्जा लगेगी अवश्य ।
दिवाकर ने करके इस बात का ध्यान
मानो दी वह धवल जवनिका तान ॥


इस रहस्य को जानकर
बाहर दिखलाने दोष अंशुमान्-वंश का,
प्रदोष ने उठा दी सत्त्वर
धरा-पृष्ठ से वही जवनिका ॥’


चतुर्थ सर्ग में नैसर्गिक शोभा-सम्पन्न प्रभात-वर्णन कवि की भावुकता का अनुपम परिचायक है । वाल्मीकि-आश्रम पर उषा का मधुर स्वरूप कवि की अभिव्यक्ति में :-

‘समंगल आई सुन्दरी
प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा,
हृदय में ले गहरी
जानकी-दर्शन की तृषा ।
नीहार-मोती उपहार लाकर पल्लव-कर में,

सती-कुटीर के बाहर
आंगन में खड़ी होकर
बोली कोकिल-स्वर में :
‘दर्शन दो सती अरी !
बीती विभावरी ॥’


गैरिक-वस्त्रधारिणी सौम्या योगेश्वरी के रूप में उषा की उत्प्रेक्षा की गयी है निम्न पंक्ति में :-


‘अरुणिमा कषाय परिधान,
सुमनों की चमकीली मुस्कान
और प्रशान्त रूप मन में जगाते विश्वास :
आकर कोई योगेश्वरी
बोल मधुर वाणी सान्त्वनाभरी,
सारा दुःख मिटाने पास
कर रही हैं आह्वान ।
मानो स्वर्ग से उतर
पधारी हैं धरती पर
करने नया जीवन प्रदान ॥’


प्रकृति और सीता परस्पर सम-दुःखसुखभागिनी हैं । प्राय प्रत्येक सर्ग में प्रकृति का वर्णन रम्य तथा रोचक है । वसन्त-ग्रीष्म आदि ऋतुओं का चित्रण अतिशय हृदयरञ्जक है । प्रकृति के सारे विभाव कवि की लेखनी में सजीव, सरस और मानवायित हैं । चतुर्थ सर्ग का और एक उदाहरण उल्लेखनीय है, सीता के प्रति वनलक्ष्मी का सख्यपूर्ण आदर । आश्रम के उपवन में कविकल्पिता वनलक्ष्मी सीता के समक्ष आन्तरिक भाव व्यक्त करती है इसप्रकार :-


‘जा रही थी जब लौट चली
पुष्पकारूढ़ तू गगन-मार्ग पर,
खड़ी मैं तब ले पुष्पाञ्जली
हरिण-नयनों में शोकभर
ऊपर को निहार
तुझे मयूरी की बोली में पुकार
रही थी बड़ी चाह से

लम्बी राह से ।
अरी प्यारी !
सहेली की बात मन में करके याद
क्या तू आज पधारी
इतने दिनों बाद ?’


अष्टम सर्ग में कवि=कल्पना की माधुरी सहृदय जनों का हृदय खींच लेती है । सीता-विरहिता अयोध्या-राजलक्ष्मी का पत्र अयोध्या पाठ करती है सीता के सम्मुख । उदाहरण स्वरूप :-


‘सखि ! मैं रजनी ;
तू थी चाँदनी ।
मेरे प्रफुल्ल नयन-कुमुद मूँद
बिदाई तूने ले ली ।
तेरे बिना अरी प्यारी !
और नहीं मेरे सुख की एक भी बूँद ।

बन गई है तेरी यह सहेली
जैसे आभरण-शून्या नारी ॥’


इन उदाहरणों के अतिरिक्त कई रमणीय चित्रण काव्य में प्रसंगानुसार प्रस्तुत किये गये हैं रंगाजीव कवि गंगाधर की मधुर लेखनी से । ऊपर उद्धृत पंक्तियाँ निदर्शन मात्र हैं ।


॥ ५ ॥


अप्रतिम-प्रतिभाशाली कवि गंगाधर कर्मयोगी हैं और भाग्यवादी भी । वे आशावादी हैं, निराशावादी कभी नहीं । कर्मयोगी कवि का जीवन-दर्शन ‘तपस्विनी’ में प्रसंगानुकूल प्रतिफलित हैं । सीता के आचरण और निर्वासन के बारे में भी कर्म और भाग्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । गंगाधर की सीता निर्वासन को अपना भाग्य-दोष मानकर आत्म-समीक्षण करती हैं । कवि के मौलिक चिन्तन यहाँ उल्लेखयोग्य हैं । पञ्चवटी वन में ‘रक्षा करो लक्ष्मण’ पुकार सुनने के बाद श्रीराम की खोज के लिये निर्दोष लक्ष्मण को तिरस्कार करना, लंका के अशोक वन में रावण द्वारा प्रदर्शित माया-राम-मस्तक में सत्य भावना करके भी जीवित रहना और अयोध्या लौटने के उपरान्त पति-चरण-सेवा को हेय समझ गंगा-तट पर आश्रम-दर्शन की अभिलाषा प्रकट करना - ये तीन दोष सीता के मन में अपने योग्य निर्वासन के कारण हैं । कालिदास की सीता की भाँति गंगाधर की सीता निर्वासन को अपने दुष्कृतों का फल सोच, समस्त दुःख झेल, अगले जन्मों में फिर श्रीराम को ही पति-रूप में प्राप्त करने की कामना रखती हैं ।


वाल्मीकि-रामायण के अनुसार, लंका में अग्निपरीक्षा के समय श्रीराम की कठोर वाणी सुनने के पश्चात् सीता के मुख से भी कुछ सकरुण कटु बातें निकलती हैं (प्राकृतः प्राकृतामिव) । गंगाधर की सीता अपने पतिव्रता धर्म को अपने संग सशरीर अग्नि में समाने के लिये दृढ़ मनोबल के साथ निडर बातें सुनाती हैं । अग्नि में शरीर के भस्म होने पर खार को किसी तरु-मूल में खाद बनवाकर उससे वर्द्धित उस तरु के काष्ठ से प्रभु श्रीराम के लिये पादुका प्रस्तुति की प्रार्थना करती हैं । सती सीता की पतिप्राणता और पति-भक्ति ने उन्हें उच्चतम नारी-आसन पर अधिष्ठित किया है ।


सर्वंसहा धरित्री की कन्या सती सीता त्याग और सहनशीलता की अद्वितीय प्रतिमा हैं । सीता के चारित्रिक उत्कर्ष की और एक विशिष्ट दिशा यह है की निर्भीक, पवित्र और महनीय मनोवृत्ति लेकर सीता अपने पति श्रीरामचन्द्र में सम्पूर्ण समर्पित रहती हैं । आत्मविश्वास ने उनके प्रेम को महान् बनाया है । पतिव्रता सीता के मन में श्रीराम की मूर्त्ति सदैव अम्लान और अटूट रहती है, जैसे पञ्चम सर्ग की वर्णना में :-


‘तापस-तापसियों के भरपूर
स्नेह-सुख ने भगा दिया दूर
समस्त व्यथाओं को सती-मन की ।
स्मृति की राह में उनकी,
विलासमय राजसुख वहीं
एक बार भ्रमवश भी आया नहीं ।
उनके विमल हृदय-सरोवर में अविराम
विहर रहे राम-राजहंस अभिराम ॥’


सीता पद्मिनी नायिका हैं और ‘तपस्विनी’ रूप में समस्त दिव्य गुणों की खान । कवि गंगाधर ने प्राय सभी सर्गों में सीता के लिये ‘सती’ शब्द का बहुल प्रयोग कर उनके समुज्ज्वल निष्कलंक चरित्र का महत्त्व दर्शाया है । भवभूति-वर्णिता सीता की भाँति गंगाधर की सीता करुण रस की मूर्त्ति हैं । संस्कृत वाङ्मय में भवभूति आद्य कवि-नाट्यकार हैं, जिन्होंने ‘एको रसः करुण एव’ कहकर एकमात्र करुण रस को अन्य सभी रसों का आधार बतलाया है । ओड़िआ साहित्य में गंगाधर सीता की निर्वासनोत्तर दुःखभरी घटनाओं को मार्मिक रूप देने में प्रथम तथा सफल काव्यकार हैं ।


करुण-रस के प्रसंग पर कुछ कवि-मनीषियों की उक्तियाँ यहाँ स्मरणीय हैं । अंग्रेजी-कवि पी. बी. शेली (P.B.Shelly) ने यथार्थ कहा है : ‘Our sweetest songs are those that tell of saddest thought’ (हमारी मधुरतम गीतियाँ वे हैं जो सर्वाधिक दुःखभरी भावना को व्यक्त करती हैं) । प्रसिद्ध हिन्दीकवि सुमित्रनन्दन पन्त की उक्ति भी उल्लेखनीय है :-

'वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान ।
उमड़कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान ॥' 


शृंगार-रसमयी कविता से कहीं बढ़कर करुणरसमयी कविता विशेष आकर्षणीय होती है । प्रख्यात आलंकारिक-शिरोमणि विश्वनाथ कविराज ने यथार्थरूप से अन्य रसों की भाँति करुण-रस की आनन्दमयता का प्रतिपादन किया है । अन्य रसों की अपेक्षा करुण रस में हृदयस्पर्शी प्रभाव अधिक मात्रा में रहता है । वास्तव अनुभव ही इसका प्रमाण है । एकरसवादी भवभूति की शब्द-संयोजना पाठक-हृदय में अपूर्व स्पन्दन तथा आनन्द जगाती है । कवि गंगाधर की कविता में भी हृदय-द्रावक उपादान गहरे समाये हैं । सीता की करुण गाथा का वर्णन करते हुए कवि गंगाधर दशम सर्ग में कहते हैं :-


‘रस-रत्नभरा काव्य-सानुमान्,
जहाँ राम-मृगराज विराजमान ।
रावण-गज की रुधिर-धार झर-झर
बहती बनकर निर्झर ।
रोतीं सिंही आश्रय कर गिरि-कन्दरा
झेल दन्ताबल के दन्ताघात का दुःख गहरा ॥’


कवि गंगाधर की लेखनी में प्रासंगिक शृंगार स्निग्ध, निर्मल, पावन, सम्मार्जित, माधुर्य-सम्पन्न और आनन्दमय भाता है । सीता का वनफूलेश्वरी-रूप ऐसे समुज्ज्वल प्रेम का मनोरम निदर्शन है, जिसमें शृंगार की सात्त्विकता सहृदय-वेद्य है ।


॥ ६ ॥


मर्यादा-पुरुषोत्तम सीतापति श्रीरामचन्द्र का व्यक्तित्व असाधारण, अनुपम तथा महनीय है । जैसे उनके प्रति सीता का प्रेम अनन्य और उत्सर्गीकृत है, वैसे सीता के प्रति उनका भी । गृहस्थ-धर्म के पोषक श्रीराम ने केवल लोकनिन्दा के कारण ही अपने सदन से पत्नी सीता को त्यागा है, अपने मन से नहीं । पत्नी-विरह में शोकाकुल होकर उन्होंने राजसिंहासन को तुच्छ समझा है । प्रजारञ्जन-रूप राजधर्म के पालन के लिये अपने वैयक्तिक तथा पारिवारिक सुख खोये हैं । फिर भी उनके हृदय में प्राणप्रिया पद्मिनी सीता सदैव विद्यमान हैं और श्रीराम का मन-भ्रमर सरस पद्म-मकरन्द के आस्वादन में तन्मय है । तृतीय सर्ग में, प्रसंगानुसार विरह-व्याकुल श्रीराम अपने इन्द्रियों को समझाते हैं इन पंक्तियों में :-


‘कहता हूँ और एक बात,
तुमलोग मन के साथ
सब सम्मिलित होकर
चलो हृदय सरोवर ।
उधर अनन्त दिनों तक
रमते रहोगे रस-रंग में अथक ।

वहाँ खिली है नयी पद्मिनी
मेरी जीवन-संगिनी ।
स्मरण का सूरज वहीं सदा जगमगाता,
अस्त कभी नहीं जाता ॥’


गंगाधर की कविता में श्रीरामचन्द्र एक आदर्शवादी प्रजावत्सल राजा तथा सामाजिक त्यागी गृहस्थ हैं । आदर्श पति श्रीराम और आदर्श साध्वी पत्नी सीता युग-युग चिर-स्मरणीय और पूजास्पद हैं । समाज में नारी-मर्यादा की प्रतिष्ठा हेतु गंगाधर की कृति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । नायक-नायिकाओं के उत्कर्ष वर्णन के साथ अन्यान्य चरित्रों के चित्रण में भी कवि की लेखनी प्रशंसनीय है ।


‘रघुवंश’ में निर्वासिता सीता की रुलाई की खोज करते हुए स्वयं वाल्मीकि महर्षि उनके पास पहुँच सान्त्वना देते हैं (तामभ्यगच्छद् रुदितानुसारी कविः कुशेध्माहरणाय यातः) । गंगाधर ने इस प्रसंग पर अपनी मौलिकता का सुकुमार प्रयोग किया है । वनभूमि में परित्यक्ता सीता की असहायता और विलाप-दुःखभरी अवस्था से सर्वप्रथम प्रत्यक्ष परिचित होती हैं आश्रम की मुनिकुमारियाँ । वे रोदन-रता सीता के पास पहुँचकर उनके दुःखों से अत्यन्त व्याकुल हो उठती हैं । उनमें से एक मुनिकन्या तुरन्त वाल्मीकि के समीप जाकर सूचना देती है और तत्पश्चात् महर्षि के साथ अनेक मुनिकुमार तथा अन्य मुनिकन्याएँ सब मिलकर सीता के सम्मुख पहुँचते हैं । सीता के साथ मुनिकुमारियों के प्रथम साक्षात्कार में निहित है कोमल-हृदया नारी के प्रति कोमल नारी-जाति की संवेदनशीलता । कवि गंगाधर ने करुणभावपूर्ण इस घटना में अपनी सुकुमार सूक्ष्मभावना का उपयुक्त विनियोग किया है ।


गंगाधर की कवि-प्रतिभा की और एक अनुपम सुकुमार देन है वाल्मीकि-आश्रम-स्थित ‘अनुकम्पा’ नाम्नी वृद्धा ब्रह्मचारिणी, जो मातृसमा ममतामयी यत्नशीला हैं पुत्री-तुल्या गर्भवती सीता के लिये । प्रसंगानुसार कवि ने अपनी साहित्यिक कृति में नाटकीय छटा प्रस्तुत कर भावुक-मन को उल्लसित करने का सफल प्रयास किया है ।


॥ ७ ॥


कवि गंगाधर की भाषा चमत्कारिणी तथा साक्षात् मर्मस्पर्शिनी है । उनकी कविता में भाव और भाषा के बीच मधुर सामञ्जस्य परिलक्षित होता है । काव्य-प्रणयन के लिये कवि ने सीता की दुःख-पर्यवसायी कथावस्तु को अपनाया है । इसमें विशेषता यह है कि अत्यन्त मार्मिक ढंग से काव्य का सुखान्त परिवेषण किया गया है । कवि की शैली प्रसादमयी, सुरुचि-सम्पन्न, कला-कुशला और आनन्ददायिनी है । सुललित सांगीतिक मधुर पद-विन्यास के साथ प्रसंगानुरूप उपमा-रूपक-अनुप्रासादि विविध काव्यालंकारों से विभूषित यह काव्य कवि गंगाधर के प्रतिभोत्कर्ष का अनुपम निदर्शन है । प्रसंगानुसार कवि ने ओड़िशा की ‘महानदी’-‘अंग’-‘इब’-‘तेल’ आदि नदियों की एक भौगोलिक सूचना दी है । सागर-सरिता के अटूट प्रेम-बन्धन के प्रसंग पर ओड़िशा के ‘चिलिका’ ह्रद का दृष्टान्त परोक्ष रूप में अन्तर्निहित किया गया है ।


उपसंहार में इतना कहा जा सकता है कि मानवीय सूक्ष्म भावों के सच्चे विश्लेषक तथा प्रकृति के निपुण सफल चित्रकार के रूप में कवि गंगाधर मेहेर वाग्‌देवी के सौभाग्यशाली वरपुत्र हैं । उनका सारस्वत अनमोल रत्न-रूप यह ‘तपस्विनी’ काव्य अपने काव्य-गुणों से सहृदय सुधीजनों के अन्तःकरण को रसाप्लुत करता रहेगा, यही पूर्ण विश्वास है ।


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[सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत ‘ तपस्विनी ’
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण : २००० ख्रीष्टाब्द ]
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